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सनातन और पटाखे

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।   ये संस्कृत भाषा में लिखा गया एक श्लोक मात्र नहीं है बल्कि ये सनातन का मूल मंत्र है। हिंदू धर्म के हर अनुष्ठान, पूजा– पाठ में इस मंत्र का पाठ सदैव ही होता आया है। हिंदू धर्म में हम लोगों को बचपन से ही ये बात घुट्टी की तरह पिला दी जाती है कि इस श्लोक में सर्वे भवन्तु सुखिनः के सर्वे शब्द का तात्पर्य समस्त जीवधारियों के लिए है। वो जीवधारी पशु हो, कीट~पतंगा हो या पेड़ पौधा ही क्यों न हो। वो जीवधारी किसी जाति विशेष से हो या न हो, किसी धर्म विशेष से हो या न हो, हमारे साथ हो या हमसे अलग हो, हम जैसा हो या रंग~रूप में हमसे भिन्न ही हो, हमारे पास का हो या पृथ्वी के दूसरे छोर से ही क्यों न हो; इस श्लोक का पाठ सबके स्वास्थ्य की कामना से, सबके सुखी रहने की कामना से किया जाता है।   मुझे याद है कि जब बचपन में मेरे लिए पटाखे लाए जाते थे तो पटाखों पर लिखी सुरक्षा चेतावनी के अतरिक्त एक बात मुझे घर पर भी समझाई जाती थी, कि पटाखे कम चलाने हैं। क्योंकि ये न सिर्फ पैसे की बर्बादी है बल्कि इससे वातावरण में जो अलग अ

सब कुछ 'ख़ुफ़िया' है.

 अपने ब्लॉग पर पहली फिल्म समीक्षा लेकर हाजिर हैं. कुछ भी कहने से पहले हम ये भी बता दें कि हम विशाल भारद्वाज की फिल्मों के बहुत बड़े वाले पंखे, कूलर, ac सब कुछ हैं. डिस्क्लेमर इसलिए टांग दिए कि कल को कोई ये ना कह दे कि, ‘अब तुम विशाल भारद्वाज को बताओगे कि फिल्में कैसे बनानी चाहिए!’ 😡  तो कुल मिलाकर किस्सा कुछ ऐसा है... इक रहिन ईर इक रहिन बीर इक रहिन फत्ते इक रहिन विशाल भारद्वाज ईर बोले चलो फिल्म बनाई बीर बोले चलो फिल्म बनाई फत्ते बोले चलो फिल्म बनाई विशाल बोले चलो हमहुँ फिल्म बनाई ईर बनाए धाॅंसू पिक्चर बीर बनाए जबर पिक्चर फत्ते बनाए रापचिक पिक्चर विशाल बनाए 'ख़ुफ़िया' 🤭   क्या हुआ, क्यों हुआ, कब हो गया, जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है इन सब बातों के लिए भगवान कृष्ण ने गीता में पहले ही कह रखा है कि हे दर्शक! तू बस फिल्म देखने हेतु हो जा. फिल्म में जो हो रहा है तू उसकी चिंता मत कर. तू बस ये देख कि अपने सब्सक्रिप्शन का पैसा कैसे वसूल हो. इस फिल्म के साथ जो हुआ है ये पहले भी होता रहा है, आगे भी होगा क्योंकि मेरे जीवन साथी, प्यार किए जा, जवानी दीवानी, खूबसूरत, जिद्दी, पड़ोसन, सत्यम

एक नाले की डायरी

चेन्नई डूबै बंगलुरू डूबै, डूबै ईर और बीर पर जब जब दिल्ली डूबै, खिंच जाए तस्वीर बारिश की ऐसी ही किसी डुबास में छपर छपर करते लेखक के हाथ कुछ पन्ने लग गए थे, जो किसी तरह भीगने से बच गए थे। प्रस्तुत लेख और कुछ नहीं, वही पन्ने हैं जो लेखक ने जस के तस लिख दिए हैं।   १६ जुलाई २०२१   सावन का महीना आ चुका है। बारिश की राह तकते लोगों को इस महीने का बड़ा इंतज़ार रहता है। जेठ आषाढ़ की गर्मी से तपते लोगों को ये महीना बड़ी राहत लेकर आता है। पर ये राहत हम नाली नाला समाज के लिए बड़ी आफ़त लेकर आती है। वैसे तो साल के बाकी महीनों में कोई हमारी तरफ नज़र उठा कर भी नहीं देखता पर बारिश के मौसम में तनिक भी किनारों से ऊपर उठ कर क्या बहो, लोग हमें ताने मारने लगते हैं, गालियाँ देने लगते हैं कि, "ये देखो! पहली बारिश में भर गया। अभी ये हाल है तो आगे न जाने क्या होगा।" वगैरह, वगैरह..  बिना ये जाने कि सावन भादौ में भर कर बहना तो हमारी फितरत में है। अरे, हमारे लिए तो अमीर खुसरो तक ने कहा है कि, "सावन भादौ बहुत चलत है, माघ पूस में थोरी; अमीर खुसरो यूँ कहें तू क्यों बनी रे मोरी।"   खैर, वो अलग ही दि

आपदा में बुद्ध होना

 उनका हृदय बहुत समय से चिंतित था। यूँ तो चिंतित होना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी पर इस बार चिंता अत्यधिक उच्च स्तर तक पहुंच चुकी थी। इस चिंता की चिंता में उन्होंने महल की हर खिड़की दरवाजे को खोल बंद करके देखा। सब कुछ सही था। फिर हर गली चौबारे को नाप कर देखा। हर नदी नाले की थाह छानी। धरती से आसमान तक भी जाकर देखा, बीच में पड़ने वाली हर वस्तु को ठोकबजा कर भी देखा। चिंता के बढ़ते स्तर के फलस्वरूप उन्होंने राज्य की हर व्यवस्था को पलटने का आदेश दे दिया, पर उनके चिंतित मन की व्यथा फिर भी शांत न हुई।   अभी कुछ ही समय पूर्व उन्होंने लंबे समय से चली आ रही सत्ता को पदच्युत करके कुर्सी संभाली थी। कुर्सी पर आते ही मानो सारे देश~विदेश, उनके सभी नागरिक, सेना, मंत्रालय, उनके कर्मियों, नीतियों, व्यवस्था, पर्यावरण, वातावरण आदि इत्यादि की चिंता का भार भी उनके सर आ पड़ा।   "आप इतनी चिंता न करें महाराज", मंत्रालय कर्मियों ने उनके सर पर रखी चिंता की गठरी अपनी ओर सरकाते हुए कहा, "ये चिंता करने वाला काम हमारा है, इसे हमें ही करने दीजिए।"   "नहीं, मेरे रहते चिंता की गठरी की चिंता किसी और

मृग मरीचिका

न जाने क्यों, मची है हलचल. न जाने क्यों, देह में भीतर तक पैवस्त खामोशियों का शोर बाहर निकलना चाहता है. जैसे कहना चाहता है, कि क्यों कैद कर रखा है मुझे, इन धमनियों के भीतर. आखिर क्यों, मैं, तुम्हारे एकाकीपन के अंधे कुएँ में, डूबने को अभिशप्त हूँ. क्यों नहीं मुक्त करते मुझे, इन शिराओं की कैद से, और मिला देते मुझको, अपनी देह के बाहर के वीरानों में. क्यों डर लगता है तुम्हें, कि मैं ग़र बाहर निकला, तो मैं, रिक्त कर दूंगा, तुम्हारे स्वत्व की संभावना को, क्या डरते हो तुम शून्य होने से? या फिर डर है तुम्हें, कि प्राणवायु सा बहता मैं, ग़र निकला तुम्हारी देह से बाहर, तो कहीं तुम भटकते न फिरो, किसी बेताल की तरह, इस पेड़ से उस पेड़ तक, इस रिश्ते से उस रिश्ते तक, अपने अस्तित्व की खोज में. तुम्हारा अस्तित्व !! जो एक मृग मरीचिका मात्र है..

मृत्यु संगीत

क्या यही जीवन संगीत है? जो बह रहा है चहुँ ओर, पक्षियों के कलरव में, गौधूलि की आहट में, दूर कहीं से आते मंदिर के घंटे के अनुनाद में, बाग में बैठे, प्रेमी युगल की खिलखिलाहट में, पेड़ पर बतियाती, चिड़िया की चहचहाहट में. एक बच्चा जो निश्छल हंसी हंस देता है, मानो स्वर लहरियां चहुँ ओर बिखेर देता है. तो फिर वो क्या है.. तो फिर वो क्या है? एक बेटा, जो हस्पताल के बाहर अपनी माँ के लिए प्राणवायु की विनती करता है. एक अभागा बाप, जो अपने बेटे का शव अपने कंधे पर लेकर पैदल ही निकल पड़ता है. वो घाट, जिनसे होकर कभी बहती थीं, कलरव करते पानी की स्वर लहरियां आज वहाँ शवों का मौन क्रंदन बहता है, ध्यान से सुनें तो उसमें भी सुर, लय और ताल का भाव छलकता है. विवशता के सुर, आंसुओं की लय सत्ता की उदासीन निर्लिप्तता की ताल क्या हम इसे मृत्यु संगीत कह सकते हैं? क्या हम इसे कह सकते हैं मृत्यु संगीत? जिसकी धुन पर नाचती हैं सत्ताएं, थिरकती हैं सरकारें, करोड़ों के होते हैं वारे न्यारे, उनके नाम पर जो हुए ईश्वर को प्यारे. जिसकी सरगम पर, पक्ष विपक्ष की महफिलें सजा करती हैं, इस रंगमहल के बाहर, जनता किसे दिखा करती है? किंतु.. पर

पैसा, औरत और आजादी

कहानी 1..   "तुमने एकाउंट से 10,000 रुपए किसलिए निकाले थे? कल मैं पासबुक में एंट्री करवा कर लाया तब देखा।" सविता के चेहरे पर कई भाव ज्वार-भाटे की तरह आए और चले गए। "वो मैं अपने लिए............ " "यार, कुछ खर्च किया करो तो बता तो दिया करो। गलती से भी तुम्हारे हाथ में कार्ड पहुँच जाए तो तुरंत ही तुम्हारे खर्चे शुरू हो जाते हैं।" "अब अपनी ही कमाई का पैसा खर्च करने के लिए भी हाथ पसारो।" सविता धीरे से फुसफुसाई। "ऐसा कर, ये रख अपना कार्ड और ये पासबुक, अब तू कमा रही है तो तुझमें इतनी समझ भी आ गई है कि मुझे समझा सके।" राकेश कार्ड और पासबुक सविता के मुँह पर फेंकता हुआ बोला। कहानी 2..   "तो में मैं इतने जूत बजांगो कि सबरी हेकड़ी भूर जाएगी।" कलुआ पैर में पहनी चप्पल को हाथ में तलवार की तरह घुमाते हुए बोला। "मार तू, और कर ही का सके है। पर तोए मैं पैसे नाय दूँगी। घर घर जा के मजूरी करूँ तब जा के जे दो पइसे हाथ में आवै हैं।" "तो मैं का चोरी डकैती से लाऊँ हूँ?" "ना करै है चोरी पर जो पइसा कमात है ऊ कौन सा घर खर्चे को देत