मृग मरीचिका

न जाने क्यों,

मची है हलचल.

न जाने क्यों,

देह में भीतर तक पैवस्त

खामोशियों का शोर

बाहर निकलना चाहता है.

जैसे कहना चाहता है,

कि क्यों कैद कर रखा है मुझे,

इन धमनियों के भीतर.

आखिर क्यों, मैं,

तुम्हारे एकाकीपन के अंधे कुएँ में,

डूबने को अभिशप्त हूँ.

क्यों नहीं मुक्त करते मुझे,

इन शिराओं की कैद से,

और मिला देते मुझको,

अपनी देह के बाहर के वीरानों में.

क्यों डर लगता है तुम्हें,

कि मैं ग़र बाहर निकला,

तो मैं, रिक्त कर दूंगा,

तुम्हारे स्वत्व की संभावना को,

क्या डरते हो तुम शून्य होने से?

या फिर डर है तुम्हें,

कि प्राणवायु सा बहता मैं,

ग़र निकला तुम्हारी देह से बाहर,

तो कहीं तुम भटकते न फिरो,

किसी बेताल की तरह,

इस पेड़ से उस पेड़ तक,

इस रिश्ते से उस रिश्ते तक,

अपने अस्तित्व की खोज में.

तुम्हारा अस्तित्व !!

जो एक मृग मरीचिका मात्र है..

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