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Showing posts from January, 2017

लौट के बुद्धू घर को आए

लौट के बुद्धू घर को आए...   कहावत तो कुछ इसी तरह थी पर लोगों ने उनके बार~बार आने जाने को देखकर इसे 'लौट के बुद्धू फिर से घर को आए' बना दिया. कहने वालों का क्या है कुछ भी कह देते हैं, जैसे कुछ कहते हैं कि जब लौट कर वापस आना ही था तो गए ही क्यों? कुछ ये भी कहते हैं कि वो इतना जाते हैं कि उनका आना न आना एक बराबर है. कुछ 'और भी रंज हैं ज़माने में, एक तेरे आने~जाने के सिवा' टाइप के लोग ये सोच कर बात को रफा~दफा कर देते हैं कि, "छोड़ो भाई, बुद्धू ही तो है. इसके आने~जाने पर क्या नज़र रखना.."   उनके बुद्धुपन में भी एक ख़ास किस्म की नफ़ासत है. आम आदमी अगर बुद्धू होता है तो वो बी ग्रेड शहर के किसी सी ग्रेड होटल में जा कर छिपता है पर उनका बुद्धुपन जहीन ठहरा, सो थाईलैंड वगैरह में जा कर ही दम लेता है. आमतौर पर जब आम बुद्धू घर लौट कर आता है तो बड़ा ही शर्मिंदा सा चुप~चुप सा रहता है और उम्मीद रहती है कि अब ये कुछ समझदारी दिखाएगा, पर उनके बुद्धुपन को जाने के बाद इतनी ऊर्जा न जाने कहाँ से मिलती है कि लौट कर आने के बाद और मुखर होकर सामने आता है.   एक नज़र से देखा जाए तो ये सारी

भूख!!

भूख..   "मैंने इतनी ज्यादा और इतनी तरह की भूख देखी है कि वो मेरे 8~10 जन्म की भूख के बराबर है." ~ हर्ष मंदार, NDTV  प्राइम टाइम पर...   भूख के भी अपने ही अर्थशास्त्र होते हैं. कोई सर्वे नहीं हुआ पर जितने पैसे भूख के सर्वे और थीसिस पर खर्च हुए हैं उसने भी कई NGO और थीसिस~मेकर की भूख मिटाने का काम किया है.   ये बात भी गौर तलब है कि फिर भी इतनी भूख बाकी रह जाती है.   थीसिस लिखने वाले भी गज़ब ही करते हैं. एक थीसिस~मेकर के हिसाब से हिंदुस्तान में एक जगह ऐसी है जहाँ लोग गाय~भैंस वगैरह के गोबर में से अन्न के दाने निकाल कर खाने के लिए इकठ्ठा करते हैं. बड़ा धैर्य चाहिए साहब! ऐसी जगह ढूंढने में जहाँ इंसान के लिए अन्न न उपजता हो पर जानवरों के गोबर में से अन्न के दाने निकल आएं. उस पर भी जहाँ जानवर गोबर करे वहां की दिन~रात की चौकीदारी कि कब कोई भूखा आए और उसकी भूख थीसिस में आए. मजे की बात ये कि थीसिस में आने के बाद वो भूखा कहीं खो सा जाता है; सही भी है कि अब उस भूखे आदमी में से भूख निकल कर थीसिस में आ गई तो वो किस काम का..?  गाँव~गुरबों में दही में से

नियति

19 जून 2013    काफी लंबा अरसा हुआ कुछ भी लिखे हुए. पूरे छः साल बाद आज कुछ फुरसत के लम्हे मिले हैं. पर क्या इस बीच मैंने वाकई में ऐसा कुछ किया था कि उसे काम बोल सकूँ ? बिना किसी प्रयास के खुद को लहरों के हवाले करने में कैसा परिश्रम ? कह सकते हैं कि खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करते~करते काम न होने पर भी एक आभासी व्यस्तता का अहसास सा होने लगता है.    खैर ! जो भी हो, पिछली बार मैंने नियति पर बात ख़त्म की थी और शायद सही भी कहा था कि नियति हमसे अपना मनचाहा करवा ही लेती है. 19 जून 2007 को जब मैंने पिछली बार कुछ लिखा था तो सोचा नहीं था कि किस्मत इस कदर रंग बदलेगी कि आते हुए हर नए रंग पर पिछला रंग फीका लगने लगेगा. मुझे अभी तक याद है कि लेक्चरर के लिए चुने जाने के बाद तुम्हारा पहला सवाल यही था कि अब मैंने अपने लिए क्या सोचा है ? सुनकर अजीब नहीं लगा क्योंकि ज़िन्दगी से कुछ उम्मीदें मेरी भी थीं और उनसे कम, कुछ भी, मुझे मंजूर नहीं था; उस पर भी तुम्हारी तरफ से ये सवाल अक्सर आता रहता था. पर तुम्हारे मुझसे बिना मिले जाने के बाद पहली बार मुझे यह अहसास हुआ कि अब हमारे बीच काफी कुछ बदल चुका है.