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Showing posts from March, 2017

टुंडे के क़बाब

टुंडे के कवाब   कवि चिन्तकानंद बड़ी भारी चिंता में डूबे हुए थे. यूँ तो उनका मूल स्वभाव ही चिंतन करना है, पर चिंतन उनके मूल में इस तरह ठूंस ठूंस कर भरा हुआ था कि कहना मुश्किल था कि धरती पर पहले कौन आया, कवि चिन्तकानंद या उनका चिंतन.. इस बार कवि के चिंतन का मूल आधार टुंडे कवाब थे. बचपन से लेकर जवानी तक जिस टुंडे कवाब का नाम तक उन्होंने कभी नहीं सुना, उसके बंद होने की खबर सुनकर उनका कवि हृदय व्यथित हो उठा. अख़बारों में उसके बंद होने की खबर पढ़ पढ़ कर उनका चिंतन स्तर बढ़ने लगा और व्यवस्था से विद्रोह की बातें उनके कवि मन में हिलोरे लेने लगीं.   "इस तरह टुंडे कवाब बंद हुए तो हमारी संस्कृति ही नष्ट हो जायेगी."   कवि चिन्तकानंद ने अखबार को इस कदर मसलते हुए ये शब्द कहे कि जैसे इस तरह अख़बार मसलने से अभी के अभी सरकार अवैध बूचड़खानों पर लगी रोक वापस ले लेगी.   "पर ये टुंडे कवाब कब से हमारी संस्कृति का हिस्सा हो गए? टुंडे कवाब तो अभी एक सौ साल पुराने हैं. उससे पुराना तो मुग़ल काल का इतिहास है."   कवि के चेहरे के ऊपर रखे माथे पर चिंतन की चार अतरिक्त रेखाएं और उभर आती हैं

उत्तर प्रदेश के उत्तर

उत्तर प्रदेश के उत्तर..    हाथ आँखों पर रखने से खतरा टल नहीं जाता   दीवार से भूचाल को रोका नहीं जाता   लोग~बाग़ इस तूफ़ान को सामान्य मौसम बताते रहे. खुद तो भ्रम में रहे साथ ही साथ मीडिया, इवेंट मैनेजमेंट के हवाले से जनता को खुद के हवा में उड़ने जैसे करतब के इंद्रजाल में घेर कर भ्रमित करने की कोशिश भी करते रहे. पर वास्तविक दिखने के फेर में बिना किसी जमीन के इतना ऊपर उठ गए कि जब जनता ने उन्हीं के दिए चश्मे से उनको देखने से इंकार कर दिया तो वे वास्तविकता की कठोर रेत पर पड़े अपनी कमर सहला रहे थे और मोदी नाम के भूचाल ने उन्हें चारों ओर से घेर रखा था. कोढ़ में खाज ये कि उससे बचने के लिए वो उसी रेत के अंदर शुतुरमुर्ग की तरह सर घुसा कर बैठ गए.   पर क्या ये सब अनायास था ? 2014 का जनादेश साफ़ इंगित कर रहा था कि अपनी~अपनी सुविधाओं की कुर्सी पर विराजमान बुद्धिजीवियों ने अपनी बुद्धिजीविता की दशा और दिशा न बदली तो आने वाला समय खुद से ही उनकी बुद्धिजीविता की गति तय करेगा.   उस समय तक कांग्रेस ने आजादी की कथित सहभागिता की कमाई से खरीदी हांडी को गरीबी, समाजवाद, दलितवाद, तुष्टिकरण के मुलम्मे चढ़ा

वुमन डे!

वुमन डे..   सुबह से सब कुछ सही सा चल रहा था. मॉर्निंग टी पलंग के सिरहाने आ चुकी थी, बच्चों को नहला~धुला कर तैयार किया जा चुका था, एतवार का दिन था तो श्रीमती जी नाश्ते के लिए ब्रेडरोल की तैयारी में थीं, फिर दोपहर को इडली~सांभर भी बनने थे. पलंग पर 'बैठे~बैठे क्या करें करना है कुछ काम' की तर्ज पर खबर वगैरह जानने के लिए टीवी खोला तो पता चला कि आज 'वुमन डे' है. तुरंत से मैडम को आवाज लगा कर 'हैप्पी वुमन डे' बोल कर बात ख़त्म करनी चाही कि किचन के अंदर से आवाज आई कि,"वो सब तो ठीक है, पर आज घर पर हो तो जरा टिंकू को उसका होमवर्क ही करवा दो." हमने शायद बैठे ठाले ही मुसीबत मोल ले ली थी, पर घरवाली का आदेश टाला भी नहीं जा सकता सोचकर टिंकू के स्टडी रूम की तरफ कदम बढ़ाये पर कमरे के हालात देखकर पैर कमरे के दरवाजे पर ही रोक लिए. अंदर का माहौल किसी जंग के बाद छाई शांति जैसा था. कमरे को तुरंत से किसी रिहैबिलिटेशन प्रोग्राम की सख्त जरुरत थी. तुरंत से टिंकू दो~चार डाँट की घुट्टी पिला कर हम घरवाली को कमरे की सफाई के बाद ही कमरे में जाने की अखंड प्रतिज्ञा करके फिर से टी