उत्तर प्रदेश के उत्तर
उत्तर प्रदेश के उत्तर..
हाथ आँखों पर रखने से खतरा टल नहीं जाता
दीवार से भूचाल को रोका नहीं जाता
लोग~बाग़ इस तूफ़ान को सामान्य मौसम बताते रहे. खुद तो भ्रम में रहे साथ ही साथ मीडिया, इवेंट मैनेजमेंट के हवाले से जनता को खुद के हवा में उड़ने जैसे करतब के इंद्रजाल में घेर कर भ्रमित करने की कोशिश भी करते रहे. पर वास्तविक दिखने के फेर में बिना किसी जमीन के इतना ऊपर उठ गए कि जब जनता ने उन्हीं के दिए चश्मे से उनको देखने से इंकार कर दिया तो वे वास्तविकता की कठोर रेत पर पड़े अपनी कमर सहला रहे थे और मोदी नाम के भूचाल ने उन्हें चारों ओर से घेर रखा था. कोढ़ में खाज ये कि उससे बचने के लिए वो उसी रेत के अंदर शुतुरमुर्ग की तरह सर घुसा कर बैठ गए.
पर क्या ये सब अनायास था ? 2014 का जनादेश साफ़ इंगित कर रहा था कि अपनी~अपनी सुविधाओं की कुर्सी पर विराजमान बुद्धिजीवियों ने अपनी बुद्धिजीविता की दशा और दिशा न बदली तो आने वाला समय खुद से ही उनकी बुद्धिजीविता की गति तय करेगा.
उस समय तक कांग्रेस ने आजादी की कथित सहभागिता की कमाई से खरीदी हांडी को गरीबी, समाजवाद, दलितवाद, तुष्टिकरण के मुलम्मे चढ़ा कर उसे समय~समय पर चमकाने की बहुत कोशिश की, पर वो ये भूल गए कि नया मुलम्मा चढाने से पहले पुराने को साफ़ करना जरुरी होता है. चढ़े हुए मुलम्मे की परतें फूली हुई कलई की तरह झड़ती गईं. गिरती हुई हर एक परत के साथ उस हांडी का नंगापन और मुखर हो कर सामने आता रहा. अंत में बचा तो सिर्फ जंग लगी छत्तीस छेद वाली हांडी जिसमें कुछ भी रुकना असंभव था. हुआ भी वही, जब भी और जहाँ भी जनता को कांग्रेस का कोई विकल्प मिला कांग्रेस वहां से साफ होती चली गई.
"मोदी की सफलता सिर्फ ब्रांड मोदी की मार्केटिंग से जुड़ी हुई है." विपक्ष के इस सामूहिक गायन के सुर, लय और ताल इस कदर दिग्भ्रमित थे कि वो ये तक भूल गए कि बाजारी वास्तविकता की पथरीली जमीन पर ब्रांड भी वही दौड़ सकता है जिसमें संभावनाओं के क्षितिज के उस पार तक देख सकने की दृष्टि और वहां तक पहुँच सकने का हौसला भी हो.
मोदी ने भी कभी अपने को 'ब्रांड मोदी' कहे जाने पर आपत्ति नहीं जताई; बल्कि उनके टोपी न पहनने, खुलेआम मंदिर जा कर पूजा~पाठ करने ने दक्षिणपंथ को संभावना की एक किरण दिखाई. संभावना की ये किरण उस समय की राजनीति में व्याप्त गंडे, ताबीज, चादर, मजार के कुहासे को चीर कर आई थी. दक्षिणपंथियों को उसमें अपनी पहचान के संकट के निराकरण की असीम संभावनाएं दिखने लगीं. नौ दिन की विदेश यात्रा के दौरान सिर्फ नींबू~पानी पर रहने वाली बात ने इस सम्भावना को और दृढ़ किया. ये वही भरोसा था जो अटल जी की सर्वमान्य छवि के बाद भी भाजपा अपने लोगों में नहीं जगा पाई थी. छद्म धर्मनिरपेक्षता रूपी जो प्रश्न काफी समय से जनमानस के बीच सवाल बन कर घूम रहा था, उस यक्ष प्रश्न की सन्दर्भ सहित व्याख्या जब लोगों के सामने आई तो खुद मुस्लिम समाज भी भौंचक सा रह गया. अब हाल ये है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के इस ककून से बाहर निकलने की कसमसाहट मुस्लिम समाज के प्रगतिशील तबके में भी साफ़ दृष्टिगोचर होने लगी है. विश्व भर में फैले इस्लामिक आतंकवाद के दवाब ने इस कसमसाहट को और बढ़ा दिया है.
"मोदी~लहर राम~लहर से भी ज्यादा बड़ी हो गई है, मतलब मोदी राम से भी बड़े हो गए हैं." अपनी~अपनी सुविधाओं के तर्कशास्त्री इस तरह के तर्क गढ़ने से पहले इस बात पर कभी नजर डालने की जहमत नहीं उठाते कि जब जनता को कांग्रेस के वंशवाद के धागे में साम्यवाद, संस्थागत भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण, पार्टीवादी अहंकार को पिरो कर बनाई गई माला के जवाब में आर्थिक सुदृढ़ता की चमक लिया दक्षिणपंथी आभूषण दिखाया गया तो वो चुनाव स्पष्ट हो चुका था. 1992 के रामलला की लहर पर सवार होने के बाद भी पीछे रह जाने की कसक 2014 के रामराज के भरोसे की लहर तक आते आते मद्दम पड़ चुकी थी, जिसकी परिणीति 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में हुई.
इन सबके बीच मोदी ने कांग्रेस के दिए बाजारवाद को परम्परा, व्यस्था, व्यक्तिगत ईमानदारी और दूरगामी दृष्टि से जोड़ कर अपने नायकत्व की छवि को महानायक के स्तर तक पहुंचा दिया. इस महानायकत्व की छवि को जनधन, आधार, गैस~सब्सिडी छोड़ने की अपील, सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी ने और प्रबल किया. साथ ही साथ ये महानायकत्व इतना साधारण भी था कि जब इसने नोटबंदी के दौरान लोगों से 'सिर्फ पचास दिन की परेशानी मित्रों, उसके बाद जो सजा होगी मंजूर होगी' कहा तो जनसाधारण को ये कोई अपने ही बीच का लगा, जिसके वो जब चाहे कान उमेठ सकते हैं.
मोदी के विरोधियों की सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि वो सिर्फ 'मोदी' के विरोधी हैं. उनका विरोध अंततः एक व्यक्तिगत स्तर पर उतर आता है. जनता को उस विरोध में मोदी जैसी रणनीति, दूरदर्शिता, परिश्रम और जमीनी स्तर तक सोचने की क्षमता का अभाव दिखता है और विरोधियों का विरोध प्रदर्शन व्यक्तिगत कुंठाओं का भौंडा प्रदर्शन मात्र रह जाता है. जब उनके वैचारिक सिद्धांतों के प्याज की परतें उतरनी शुरू होती हैं तो अंत में हाथ में कुछ नहीं बचता. वो बीज भी हाथ नहीं आता जिससे उनके विरोधी अगले मुकाबले की जमीन पर फिर से विचारों की कोई फसल उगा सकें.
मोदी ने अपने विरोध के लिए भी नए प्रतिमान स्थापित कर दिए हैं. ये प्रतिमान इतने कड़े हैं कि मायावती के नब्बे मुसलमानों के टिकट से भी उसकी बराबरी नहीं की जा सकी. इसकी बराबरी अखिलेश के अखबारी पन्नों वाले विकास के कथित दावों से भी नहीं की जा सकती जबकि जनता ने उनके पारिवारिक सत्ता के संघर्ष को धर्म~युद्ध के नाम पर उन्हीं अखबारी पन्नों पर आते देखा है.
जिस प्रशांत किशोर को मोदी काफी पहले छोड़ कर आगे निकल चुके थे, उससे अपने लिए प्रतिमान स्थापित करवाते समय राहुल गांधी भी ये भूल कर कर बैठे कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में सिर्फ मार्केटिंग और मीडिया मैनेजमेंट के सर्व~सुलभ साधनों के सहारे रेत को नमक बना कर नहीं बेचा जा सकता. बराबरी करनी है तो मुकाबले में मोदी की तरह नमक होना ही पड़ेगा.
अब माया, ममता, केजरीवाल, मुलायम सब आपस में मिल कर फिर से दलित~कार्ड, धर्मनिरपेक्षता के जुमले उछालेंगे. शुरुआत वोटिंग मशीन टेम्परिंग के आरोप रूपी फीते से मोदी का कद नापने से हो भी चुकी हैं पर जनता की आकांक्षाएं इस नाप~तोल की मिस्त्रीगिरि से कहीं आगे निकल चुकी हैं. इस बात को सामूहिक विपक्ष जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा...
पर क्या ये सब अनायास था ? 2014 का जनादेश साफ़ इंगित कर रहा था कि अपनी~अपनी सुविधाओं की कुर्सी पर विराजमान बुद्धिजीवियों ने अपनी बुद्धिजीविता की दशा और दिशा न बदली तो आने वाला समय खुद से ही उनकी बुद्धिजीविता की गति तय करेगा.
उस समय तक कांग्रेस ने आजादी की कथित सहभागिता की कमाई से खरीदी हांडी को गरीबी, समाजवाद, दलितवाद, तुष्टिकरण के मुलम्मे चढ़ा कर उसे समय~समय पर चमकाने की बहुत कोशिश की, पर वो ये भूल गए कि नया मुलम्मा चढाने से पहले पुराने को साफ़ करना जरुरी होता है. चढ़े हुए मुलम्मे की परतें फूली हुई कलई की तरह झड़ती गईं. गिरती हुई हर एक परत के साथ उस हांडी का नंगापन और मुखर हो कर सामने आता रहा. अंत में बचा तो सिर्फ जंग लगी छत्तीस छेद वाली हांडी जिसमें कुछ भी रुकना असंभव था. हुआ भी वही, जब भी और जहाँ भी जनता को कांग्रेस का कोई विकल्प मिला कांग्रेस वहां से साफ होती चली गई.
"मोदी की सफलता सिर्फ ब्रांड मोदी की मार्केटिंग से जुड़ी हुई है." विपक्ष के इस सामूहिक गायन के सुर, लय और ताल इस कदर दिग्भ्रमित थे कि वो ये तक भूल गए कि बाजारी वास्तविकता की पथरीली जमीन पर ब्रांड भी वही दौड़ सकता है जिसमें संभावनाओं के क्षितिज के उस पार तक देख सकने की दृष्टि और वहां तक पहुँच सकने का हौसला भी हो.
मोदी ने भी कभी अपने को 'ब्रांड मोदी' कहे जाने पर आपत्ति नहीं जताई; बल्कि उनके टोपी न पहनने, खुलेआम मंदिर जा कर पूजा~पाठ करने ने दक्षिणपंथ को संभावना की एक किरण दिखाई. संभावना की ये किरण उस समय की राजनीति में व्याप्त गंडे, ताबीज, चादर, मजार के कुहासे को चीर कर आई थी. दक्षिणपंथियों को उसमें अपनी पहचान के संकट के निराकरण की असीम संभावनाएं दिखने लगीं. नौ दिन की विदेश यात्रा के दौरान सिर्फ नींबू~पानी पर रहने वाली बात ने इस सम्भावना को और दृढ़ किया. ये वही भरोसा था जो अटल जी की सर्वमान्य छवि के बाद भी भाजपा अपने लोगों में नहीं जगा पाई थी. छद्म धर्मनिरपेक्षता रूपी जो प्रश्न काफी समय से जनमानस के बीच सवाल बन कर घूम रहा था, उस यक्ष प्रश्न की सन्दर्भ सहित व्याख्या जब लोगों के सामने आई तो खुद मुस्लिम समाज भी भौंचक सा रह गया. अब हाल ये है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के इस ककून से बाहर निकलने की कसमसाहट मुस्लिम समाज के प्रगतिशील तबके में भी साफ़ दृष्टिगोचर होने लगी है. विश्व भर में फैले इस्लामिक आतंकवाद के दवाब ने इस कसमसाहट को और बढ़ा दिया है.
"मोदी~लहर राम~लहर से भी ज्यादा बड़ी हो गई है, मतलब मोदी राम से भी बड़े हो गए हैं." अपनी~अपनी सुविधाओं के तर्कशास्त्री इस तरह के तर्क गढ़ने से पहले इस बात पर कभी नजर डालने की जहमत नहीं उठाते कि जब जनता को कांग्रेस के वंशवाद के धागे में साम्यवाद, संस्थागत भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण, पार्टीवादी अहंकार को पिरो कर बनाई गई माला के जवाब में आर्थिक सुदृढ़ता की चमक लिया दक्षिणपंथी आभूषण दिखाया गया तो वो चुनाव स्पष्ट हो चुका था. 1992 के रामलला की लहर पर सवार होने के बाद भी पीछे रह जाने की कसक 2014 के रामराज के भरोसे की लहर तक आते आते मद्दम पड़ चुकी थी, जिसकी परिणीति 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में हुई.
इन सबके बीच मोदी ने कांग्रेस के दिए बाजारवाद को परम्परा, व्यस्था, व्यक्तिगत ईमानदारी और दूरगामी दृष्टि से जोड़ कर अपने नायकत्व की छवि को महानायक के स्तर तक पहुंचा दिया. इस महानायकत्व की छवि को जनधन, आधार, गैस~सब्सिडी छोड़ने की अपील, सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी ने और प्रबल किया. साथ ही साथ ये महानायकत्व इतना साधारण भी था कि जब इसने नोटबंदी के दौरान लोगों से 'सिर्फ पचास दिन की परेशानी मित्रों, उसके बाद जो सजा होगी मंजूर होगी' कहा तो जनसाधारण को ये कोई अपने ही बीच का लगा, जिसके वो जब चाहे कान उमेठ सकते हैं.
मोदी के विरोधियों की सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि वो सिर्फ 'मोदी' के विरोधी हैं. उनका विरोध अंततः एक व्यक्तिगत स्तर पर उतर आता है. जनता को उस विरोध में मोदी जैसी रणनीति, दूरदर्शिता, परिश्रम और जमीनी स्तर तक सोचने की क्षमता का अभाव दिखता है और विरोधियों का विरोध प्रदर्शन व्यक्तिगत कुंठाओं का भौंडा प्रदर्शन मात्र रह जाता है. जब उनके वैचारिक सिद्धांतों के प्याज की परतें उतरनी शुरू होती हैं तो अंत में हाथ में कुछ नहीं बचता. वो बीज भी हाथ नहीं आता जिससे उनके विरोधी अगले मुकाबले की जमीन पर फिर से विचारों की कोई फसल उगा सकें.
मोदी ने अपने विरोध के लिए भी नए प्रतिमान स्थापित कर दिए हैं. ये प्रतिमान इतने कड़े हैं कि मायावती के नब्बे मुसलमानों के टिकट से भी उसकी बराबरी नहीं की जा सकी. इसकी बराबरी अखिलेश के अखबारी पन्नों वाले विकास के कथित दावों से भी नहीं की जा सकती जबकि जनता ने उनके पारिवारिक सत्ता के संघर्ष को धर्म~युद्ध के नाम पर उन्हीं अखबारी पन्नों पर आते देखा है.
जिस प्रशांत किशोर को मोदी काफी पहले छोड़ कर आगे निकल चुके थे, उससे अपने लिए प्रतिमान स्थापित करवाते समय राहुल गांधी भी ये भूल कर कर बैठे कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में सिर्फ मार्केटिंग और मीडिया मैनेजमेंट के सर्व~सुलभ साधनों के सहारे रेत को नमक बना कर नहीं बेचा जा सकता. बराबरी करनी है तो मुकाबले में मोदी की तरह नमक होना ही पड़ेगा.
अब माया, ममता, केजरीवाल, मुलायम सब आपस में मिल कर फिर से दलित~कार्ड, धर्मनिरपेक्षता के जुमले उछालेंगे. शुरुआत वोटिंग मशीन टेम्परिंग के आरोप रूपी फीते से मोदी का कद नापने से हो भी चुकी हैं पर जनता की आकांक्षाएं इस नाप~तोल की मिस्त्रीगिरि से कहीं आगे निकल चुकी हैं. इस बात को सामूहिक विपक्ष जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा...
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