आपदा में बुद्ध होना
उनका हृदय बहुत समय से चिंतित था। यूँ तो चिंतित होना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी पर इस बार चिंता अत्यधिक उच्च स्तर तक पहुंच चुकी थी। इस चिंता की चिंता में उन्होंने महल की हर खिड़की दरवाजे को खोल बंद करके देखा। सब कुछ सही था। फिर हर गली चौबारे को नाप कर देखा। हर नदी नाले की थाह छानी। धरती से आसमान तक भी जाकर देखा, बीच में पड़ने वाली हर वस्तु को ठोकबजा कर भी देखा। चिंता के बढ़ते स्तर के फलस्वरूप उन्होंने राज्य की हर व्यवस्था को पलटने का आदेश दे दिया, पर उनके चिंतित मन की व्यथा फिर भी शांत न हुई।
अभी कुछ ही समय पूर्व उन्होंने लंबे समय से चली आ रही सत्ता को पदच्युत करके कुर्सी संभाली थी। कुर्सी पर आते ही मानो सारे देश~विदेश, उनके सभी नागरिक, सेना, मंत्रालय, उनके कर्मियों, नीतियों, व्यवस्था, पर्यावरण, वातावरण आदि इत्यादि की चिंता का भार भी उनके सर आ पड़ा।
"आप इतनी चिंता न करें महाराज", मंत्रालय कर्मियों ने उनके सर पर रखी चिंता की गठरी अपनी ओर सरकाते हुए कहा, "ये चिंता करने वाला काम हमारा है, इसे हमें ही करने दीजिए।"
"नहीं, मेरे रहते चिंता की गठरी की चिंता किसी और को करने की आवश्यकता नहीं है। अब चिंता करना मेरा ही काम है और यही मेरा एकमात्र दायित्व है।"
दायित्व निर्वहन में उन्होंने कोई कमी भी नहीं छोड़ी। वैसे तो उनको सारे देश के हालचाल पता ही थे पर फिर भी दायित्व निर्वहन की चिंता की रक्षा के लिए उन्होंने एक के बाद एक, कई बार देश भ्रमण किये, मुद्राबन्दी से तालाबंदी तक की यात्रा भी तय की किंतु फिर भी उनकी चिंता दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी। दिनोंदिन बढ़ती चिंता के कारण ऐसा लग रहा था कि वो बुद्धत्व प्राप्त करने से बस एक~दो कदम की दूरी पर ही हैं कि एक दिन उनके मन मष्तिष्क में मानो किसी ने पुकारा, "चुनाव.."। ये सुनकर उनके चिंतित मन को मानो एक नई दिशा मिली और वो निर्वाण पथ की ओर अग्रसर हो उठे।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
सत्तर साल से भी पुराने इस लोकतंत्र में अभी भी सरकारें नहीं, प्रभु राम ही इस देश के निवासियों के तारण हार हैं ये इस बीते समय में प्रत्यक्ष भी हो चुका है। ऑक्सीजन के लिए लगती पंक्तियां, दवाओं को किसी भी कीमत पर खरीदने की जद्दोजहद, अपने मरते को बचाने के लिए उपाय करने के स्थान पर सरकारी व्यवस्था से जूझने की बेबसी, लाशों के अंतिम संस्कार को होती नूरा कुश्ती अब बीती बातें हो चुकी हैं, इतिहास में दर्ज होने लायक मसाला भी बन चुकी हैं।
पर इतिहास में दर्ज होने को शायद अभी भी बहुत कुछ बाकी रह गया था। कोरोना की सुनामी के समय स्थापित होने वाले 'राम-राज्य' के बाद सरकारों ने बताया कि उनके पास उनकी सम्पूर्ण व्यवस्थागत असफलता का कोई आंकड़ा नहीं है। मौत जब संवेदनशीलता और शर्मिंदगी न होकर एक आंकड़ा मात्र हो और उस आंकड़े का पुलिंदा बनाकर उस पुलिंदे से फुटबॉल खेलने की सहूलियत जब सरकारों के पास हो तो वो गेंद को मरने वालों के गोल-पोस्ट में डाल कर उनसे ही पूछती है कि, ऐ दो कौड़ी की जनता!! साँस लेना तू छोड़ती है तो इल्जाम हम पर क्यों धरती है?
इतिहास हमेशा इसी तरह से लिखे जाते रहे हैं।
विभिन्न माध्यमों से आते जिंदगियों के खत्म होने के अलग अलग आंकड़ों के सही या गलत होने के बारे में सरकारी तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता पर तथाकथित सरकारी संवेदनशीलता और उसके कारण सरकारी आंकड़ों और दावों की विश्वसनीयता को देखते हुए संविधान में 'वी, द पीपल ऑफ इंडिया' के साथ एक पंक्ति 'वी, द कैटल क्लास ऑफ इंडिया' भी जोड़ने का यही सही समय है।
अंत में...
वो एक बार फिर आये। वैसे तो वो हर छोटे मोटे अवसर पर आते ही रहते थे पर इस बार जब बहुत लंबे समय तक नहीं आये तो चिंता जनता को होने लगी कि पता नहीं वो क्यों नहीं आये। लेकिन वो आये। आकर उन्होंने बताया कि अगर पहले वैसा हुआ होता तो आज ऐसा हो जाता। उन्होंने ये भी बताया कि आज ऐसा हुआ क्योंकि पहले वैसा नहीं हुआ था, साथ ही उन्होंने ये भी समझाया कि अगर पहले वैसा नहीं हुआ होता तो आज ऐसा न होकर वैसा हो चुका होता। कहते कहते वो रो पड़े।
वो रो कर बुद्धत्व को प्राप्त हो चुके थे; या फिर बुद्धत्व को प्राप्त हुए फिर रोए... कुछ फर्क पड़ता है?
राजनीतिक परिवेश में आपदा में बुद्ध होने की तर्कसंगत व्यख्या 👌🏼👏🙏🏼😊
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतिभा जी 🙏💐💐
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 28 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
लेख को अपने संकलन में स्थान देने के लिए आपको भी धन्यवाद आदरणीया. 🙏💐💐
Deleteआज के परिपेक्ष्य में सार्थक लेख।
ReplyDeleteवैसे सारा दायित्त्व सर्वोपरि पर ही नहीं होता थोड़ा देशवासी भी सहयोग दें ।
बुद्ध हो जाने में ही भला है आज के माहोल में ... नहीं तो कहने वाले बहुत कुछ कहते हैं ...
ReplyDeleteभूल के सब कुछ करते जाना भी बुद्ध हो जना ही है ...
संविधान में 'वी, द पीपल ऑफ इंडिया' के साथ एक पंक्ति 'वी, द कैटल क्लास ऑफ इंडिया' भी जोड़ने का यही सही समय है। बस ये लाइन दिल को छू गई बहुत ही उत्तम किस्म से लिखा है शब्दहीन कर दिया एक एक लाइन सटीक बैठती है
ReplyDeleteवाह...गजब का कटाक्ष किया है.. बाकी बुद्ध होकर भी कोई रोता है क्या सुना है बुद्ध के हाव भाव मर जाते है..!
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