टुंडे के क़बाब
टुंडे के कवाब
कवि चिन्तकानंद बड़ी भारी चिंता में डूबे हुए थे. यूँ तो उनका मूल स्वभाव ही चिंतन करना है, पर चिंतन उनके मूल में इस तरह ठूंस ठूंस कर भरा हुआ था कि कहना मुश्किल था कि धरती पर पहले कौन आया, कवि चिन्तकानंद या उनका चिंतन.. इस बार कवि के चिंतन का मूल आधार टुंडे कवाब थे. बचपन से लेकर जवानी तक जिस टुंडे कवाब का नाम तक उन्होंने कभी नहीं सुना, उसके बंद होने की खबर सुनकर उनका कवि हृदय व्यथित हो उठा. अख़बारों में उसके बंद होने की खबर पढ़ पढ़ कर उनका चिंतन स्तर बढ़ने लगा और व्यवस्था से विद्रोह की बातें उनके कवि मन में हिलोरे लेने लगीं.
"इस तरह टुंडे कवाब बंद हुए तो हमारी संस्कृति ही नष्ट हो जायेगी."
कवि चिन्तकानंद ने अखबार को इस कदर मसलते हुए ये शब्द कहे कि जैसे इस तरह अख़बार मसलने से अभी के अभी सरकार अवैध बूचड़खानों पर लगी रोक वापस ले लेगी.
"पर ये टुंडे कवाब कब से हमारी संस्कृति का हिस्सा हो गए? टुंडे कवाब तो अभी एक सौ साल पुराने हैं. उससे पुराना तो मुग़ल काल का इतिहास है."
कवि के चेहरे के ऊपर रखे माथे पर चिंतन की चार अतरिक्त रेखाएं और उभर आती हैं.
"देखिये, समय सापेक्ष है और सत्य निरपेक्ष. जो सत्य है वही संस्कृति है और सत्य यही है कि इस कवाब की कहानी के पीछे एक बेचारा भूखा और खाने से लाचार आदमी और उसकी मदद के लिए आगे आया बेचारा अपाहिज खानसामा है."
कवि के चिंतन में इतनी गहराई है कि वो विलासिता और समाजवाद के बीच सम्बन्ध स्थापित करने से पहले एक बार भी नहीं ठिठकता.
"तो वो पोपला नवाब और उसका टुंडा खानसामा हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं?"
"देखिये, ये सिर्फ प्रतीक हैं. आप मानव की मानव के प्रति सार्थकता देखिये. टुंडा कवाब के नाम पर न जाइये, बल्कि उसकी व्यापकता देखिये. भैंसे का बलिदान देखिये, मनुष्य द्वारा उस भैंसे के मांस को कूट~कूट कर उसका कीमा बनाने में किया परिश्रम देखिये. मानव और पशु के बीच के इस सहभागिता के अप्रतिम उदाहरण को आप संस्कृति नहीं तो और क्या कहेंगे?"
कवि चतुर सुजान है. उसका चिंतन साधारण वाद~विवाद से ऊपर उठ कर संभावनाओं के क्षितिज के उस पार की टीवी डिबेट, न्यूज़, आर्टिकल से हो सकने वाली झमाझम पब्लिसिटी की सम्भावना देख लेता है. ये सम्भावना ही कवि का ध्येय है. वो जिस सहजता से टुंडे कवाब में से वैध~अवैध के सवाल को किनारे कर चिंतन को मानव~पशु सहभागिता पर ला सकता है, उतनी ही सफाई से जलइकुट्टू में जानवरों पर होते तथाकथित अत्याचार पर भी चिंतन कर सकता है.
"पर सरकार तो सिर्फ अवैध बूचड़खानों को बंद करने की बात कर रही है."
"वैध क्या है और अवैध क्या है? ये सब तो मनुष्यों द्वारा बनाई गई सीमाएं हैं. जो सत्य है, सनातन है वो अवैध कैसे हो सकता है?"
कवि चिन्तकानंद के मुख से संस्कृति झमाझम बरस रही है.
"भैंसे को काटने वाला छुरा क्या मिथ्या है? भैंसे के मांस को कूट~कूट कर रुई के फाहे जैसा मुलायम करने में किया श्रम क्या भ्रम मान सकते हैं?"
कवि के चिंतन का स्तर बहुत गहरा है. वो सरकार की लाइसेंसी व्यवस्था को नहीं मानता. उसकी चेतना अवैध रूप से चलते हुए बूचड़खानों में कटते हुए गाय, भैंसों से पार जाकर कवाब की दुकान पर लाइन लगा कर खड़े हुए मनुष्यों तक जाती है.
"स्वाद आनंद है और आनंद ही सत्य है. तो जो सत्य है वो अवैध कैसे हो सकता है?"
कवि चिंतन की सीढ़ी चढ़ता है तो बाकी सारी चिंताएं पीछे छूटती जाती हैं. कवि को उस ऊंचाई से टुंडे कवाब की वैधता के पीछे छिपे तानाशाही संदेश दृष्टिगोचर होने लगते हैं.
"मरना तो भैंसे को हर हाल में है. कैसे मरा, प्रश्न ये नहीं बल्कि उसका मरना किस काम आया, प्रश्न ये है और यही वास्तविकता है. भैंसे को काटने वाले छुरे को पकड़े हाथों को मिलता रोजगार यथार्थ है. लोगों को उसके मांस के कीमे से मिलती आत्मिक संतुष्टि ही प्रकृति का सच्चा आनंद है
"पर......"
"देखिये, आप अभी तक किन्तु, परंतु, पर, अगर, मगर में उलझे हुए हैं. आप वैध~अवैध की हीनता की ग्रंथि से ऊपर उठ कर इस तानाशाही के वैश्विक प्रभाव को नहीं देख पा रहे हैं."
इस वैश्विक प्रभाव की प्रस्तावना के साथ ही कवि चिंतन के सोपान की सबसे ऊँची सीढ़ी तक पहुँच जाता है.
वैश्विक अर्थव्यवस्था, वैश्विक मंदी, वैश्विक रोजगार में कमी, वैश्विक गरीबी के टुंडे कवाब की दुकान से समानुपाती सूत्र स्थापित करते~करते कवि के मुंह से वैश्विक जन~संतुष्टि की लार टपकने लगती है.
कवि कवाब की दुकान पर पहुँच कर दो टिक्के उदरस्थ करता है.
तभी कवि की जेब में रखा मोबाइल बज उठता है. खबर मिलती है कि कवि के सुपुत्र को एंटी रोमियो स्क्वाड ने 'मजनूँ के टीले' पर धर दबोचा है.
कवि चिन्तकानंद के चिंतन का नया अध्याय आरम्भ हो जाता है..
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