लौट के बुद्धू घर को आए
लौट के बुद्धू घर को आए...
कहावत तो कुछ इसी तरह थी पर लोगों ने उनके बार~बार आने जाने को देखकर इसे 'लौट के बुद्धू फिर से घर को आए' बना दिया. कहने वालों का क्या है कुछ भी कह देते हैं, जैसे कुछ कहते हैं कि जब लौट कर वापस आना ही था तो गए ही क्यों? कुछ ये भी कहते हैं कि वो इतना जाते हैं कि उनका आना न आना एक बराबर है. कुछ 'और भी रंज हैं ज़माने में, एक तेरे आने~जाने के सिवा' टाइप के लोग ये सोच कर बात को रफा~दफा कर देते हैं कि, "छोड़ो भाई, बुद्धू ही तो है. इसके आने~जाने पर क्या नज़र रखना.."
उनके बुद्धुपन में भी एक ख़ास किस्म की नफ़ासत है. आम आदमी अगर बुद्धू होता है तो वो बी ग्रेड शहर के किसी सी ग्रेड होटल में जा कर छिपता है पर उनका बुद्धुपन जहीन ठहरा, सो थाईलैंड वगैरह में जा कर ही दम लेता है. आमतौर पर जब आम बुद्धू घर लौट कर आता है तो बड़ा ही शर्मिंदा सा चुप~चुप सा रहता है और उम्मीद रहती है कि अब ये कुछ समझदारी दिखाएगा, पर उनके बुद्धुपन को जाने के बाद इतनी ऊर्जा न जाने कहाँ से मिलती है कि लौट कर आने के बाद और मुखर होकर सामने आता है.
एक नज़र से देखा जाए तो ये सारी दुनिया बुद्धू होने और बुद्धू न होने के बीच के संघर्ष में ही कहीं सिमटी हुई है. बड़ा ही चिरकुटई सा माहौल हो गया है. जो अब तक समझदारी से लोगों को बुद्धू बनाते रहे वो जब पहली बार बुद्धू बने तो लोगों से समझदारी को एक तरफ रख कर फिर से बुद्धू बन जाने को कह रहे हैं. गुरुग्राम से लेकर जयपुर, बीकानेर तक की जमीन हड़पने वाले किसान बन कर बुद्धू बनाने में लगे हुए हैं. जिन्होंने आज तक किसी भी मुद्दे पर अपनी जवाबदेही नहीं समझी वो लोगों के रहनुमा बन कर सवाल पूँछ कर समझते हैं कि लोग बुद्धू हैं. 'गरीबी हटाओ' के नारे को साथ लेकर गरीबों के साथ खिलवाड़ करने वाले लेविस् की जीन्स के ऊपर पहने खद्दर के कुर्ते की फटी जेबें दिखा कर लोगों को बुद्धू समझते हैं. गरीबी को फिक्स डिपॉज़िट बना कर उसकी ब्याज से अपनी जेबें भरने वालों को जब अपना मूलधन खिसकता नज़र आया तो वो अपने फटे कुर्ते दिखा कर फिर से गरीबी कमाने निकले हैं.
चिंता गरीब नहीं है, उनकी चिंता है कि इतनी कोशिशों के बाद भी गरीब तक पहुंचने वाले वो 'पंद्रह पैसे' उनकी नज़र से बचे कैसे रह गए..
'हीरे की परख जौहरी को होती है' की तर्ज पर देखने वालों को उनके बुद्धुपन में भी संभावनाएं दिख जाती हैं. आलू की फैक्ट्री में उनको भविष्य का विज्ञान दिख जाता है; जब वो इमोशनल होकर कविता पढ़ते हैं कि 'वन डे आय वोक अप एट नाईट' तो उसमें शेक्सपीयर, कीट्स के दर्शन हो जाते हैं; जब वो कहते हैं कि मैं आपकी तरह नहीं हूँ, मैं गलतियां करता रहता हूँ तो उसमें ह्यूमन इवोल्यूशन की असीम संभावनाएं झलकने लगती हैं.
पारखी नज़र वालों को अगर कालिदास में सम्भावना न दिखी होती तो उनकी जिंदगी किसी लकड़हारे की तरह ही ख़त्म हो गई होती. कभी सोचा है कि प्रकृति को अगर न्यूटन में सम्भावना न दिखी होती और उनके सर पर सेब न गिराया होता, तो उनका क्या होता. गलती व्यवस्था की है जो अब तक सेब से आगे कुछ और न सोच पाई. समय भी न्यूटन की सेब वाली व्यवस्था से काफी आगे बढ़ चुका है सो हो सकता है कि उनका बुद्धुपना न्यूटन की तरह कुछ बड़े के गिरने का इंतज़ार कर रहा हो. हो सकता है कि प्रकृति ने इस बार ये काम खुद न करके आमजन के हवाले ही छोड़ रखा हो.
कौन जाने...
उनके बुद्धुपन में भी एक ख़ास किस्म की नफ़ासत है. आम आदमी अगर बुद्धू होता है तो वो बी ग्रेड शहर के किसी सी ग्रेड होटल में जा कर छिपता है पर उनका बुद्धुपन जहीन ठहरा, सो थाईलैंड वगैरह में जा कर ही दम लेता है. आमतौर पर जब आम बुद्धू घर लौट कर आता है तो बड़ा ही शर्मिंदा सा चुप~चुप सा रहता है और उम्मीद रहती है कि अब ये कुछ समझदारी दिखाएगा, पर उनके बुद्धुपन को जाने के बाद इतनी ऊर्जा न जाने कहाँ से मिलती है कि लौट कर आने के बाद और मुखर होकर सामने आता है.
एक नज़र से देखा जाए तो ये सारी दुनिया बुद्धू होने और बुद्धू न होने के बीच के संघर्ष में ही कहीं सिमटी हुई है. बड़ा ही चिरकुटई सा माहौल हो गया है. जो अब तक समझदारी से लोगों को बुद्धू बनाते रहे वो जब पहली बार बुद्धू बने तो लोगों से समझदारी को एक तरफ रख कर फिर से बुद्धू बन जाने को कह रहे हैं. गुरुग्राम से लेकर जयपुर, बीकानेर तक की जमीन हड़पने वाले किसान बन कर बुद्धू बनाने में लगे हुए हैं. जिन्होंने आज तक किसी भी मुद्दे पर अपनी जवाबदेही नहीं समझी वो लोगों के रहनुमा बन कर सवाल पूँछ कर समझते हैं कि लोग बुद्धू हैं. 'गरीबी हटाओ' के नारे को साथ लेकर गरीबों के साथ खिलवाड़ करने वाले लेविस् की जीन्स के ऊपर पहने खद्दर के कुर्ते की फटी जेबें दिखा कर लोगों को बुद्धू समझते हैं. गरीबी को फिक्स डिपॉज़िट बना कर उसकी ब्याज से अपनी जेबें भरने वालों को जब अपना मूलधन खिसकता नज़र आया तो वो अपने फटे कुर्ते दिखा कर फिर से गरीबी कमाने निकले हैं.
चिंता गरीब नहीं है, उनकी चिंता है कि इतनी कोशिशों के बाद भी गरीब तक पहुंचने वाले वो 'पंद्रह पैसे' उनकी नज़र से बचे कैसे रह गए..
'हीरे की परख जौहरी को होती है' की तर्ज पर देखने वालों को उनके बुद्धुपन में भी संभावनाएं दिख जाती हैं. आलू की फैक्ट्री में उनको भविष्य का विज्ञान दिख जाता है; जब वो इमोशनल होकर कविता पढ़ते हैं कि 'वन डे आय वोक अप एट नाईट' तो उसमें शेक्सपीयर, कीट्स के दर्शन हो जाते हैं; जब वो कहते हैं कि मैं आपकी तरह नहीं हूँ, मैं गलतियां करता रहता हूँ तो उसमें ह्यूमन इवोल्यूशन की असीम संभावनाएं झलकने लगती हैं.
पारखी नज़र वालों को अगर कालिदास में सम्भावना न दिखी होती तो उनकी जिंदगी किसी लकड़हारे की तरह ही ख़त्म हो गई होती. कभी सोचा है कि प्रकृति को अगर न्यूटन में सम्भावना न दिखी होती और उनके सर पर सेब न गिराया होता, तो उनका क्या होता. गलती व्यवस्था की है जो अब तक सेब से आगे कुछ और न सोच पाई. समय भी न्यूटन की सेब वाली व्यवस्था से काफी आगे बढ़ चुका है सो हो सकता है कि उनका बुद्धुपना न्यूटन की तरह कुछ बड़े के गिरने का इंतज़ार कर रहा हो. हो सकता है कि प्रकृति ने इस बार ये काम खुद न करके आमजन के हवाले ही छोड़ रखा हो.
कौन जाने...
Comments
Post a Comment