नियति
19 जून 2013
काफी लंबा अरसा हुआ कुछ भी लिखे हुए. पूरे छः साल बाद आज कुछ फुरसत के लम्हे मिले हैं. पर क्या इस बीच मैंने वाकई में ऐसा कुछ किया था कि उसे काम बोल सकूँ ? बिना किसी प्रयास के खुद को लहरों के हवाले करने में कैसा परिश्रम ? कह सकते हैं कि खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करते~करते काम न होने पर भी एक आभासी व्यस्तता का अहसास सा होने लगता है.
खैर ! जो भी हो, पिछली बार मैंने नियति पर बात ख़त्म की थी और शायद सही भी कहा था कि नियति हमसे अपना मनचाहा करवा ही लेती है. 19 जून 2007 को जब मैंने पिछली बार कुछ लिखा था तो सोचा नहीं था कि किस्मत इस कदर रंग बदलेगी कि आते हुए हर नए रंग पर पिछला रंग फीका लगने लगेगा. मुझे अभी तक याद है कि लेक्चरर के लिए चुने जाने के बाद तुम्हारा पहला सवाल यही था कि अब मैंने अपने लिए क्या सोचा है ? सुनकर अजीब नहीं लगा क्योंकि ज़िन्दगी से कुछ उम्मीदें मेरी भी थीं और उनसे कम, कुछ भी, मुझे मंजूर नहीं था; उस पर भी तुम्हारी तरफ से ये सवाल अक्सर आता रहता था. पर तुम्हारे मुझसे बिना मिले जाने के बाद पहली बार मुझे यह अहसास हुआ कि अब हमारे बीच काफी कुछ बदल चुका है.
नियति ने यह कोशिश पहले भी की थी, पर... इसे हम कुछ भी कह सकते हैं; अपनी जिद, भविष्य की चिंता. लेकिन किस भविष्य की चिंता, क्योंकि जिद तो व्यक्तिगत होती है पर भविष्य, और उसकी चिंता..?
शब्द नहीं मिल रहे हैं, कलम की स्याही अपने आखिरी निशान तक पहुँच चुकी है. क्या मैं अपने आप को लहरों के हवाले कर चुका हूँ ? दिमाग नहीं मानता पर दिल के किसी कोने से आवाज आती है कि यही सच है. दिमाग के काम न करने को तकनीकी तौर पर मौत कहा जाता है, और मैं उस अवस्था तक पहुँच भी चुका हूँ पर इस दिल का क्या करूँ ? ये कमबख्त अभी तक जिन्दा है, और मजे की बात है कि धड़क भी रहा है. शायद इस धड़कन को ही जिंदगी कहते हैं.
शब्द भटक रहे हैं, लिखे हुए का तारतम्य आपस में नहीं मिल रहा है पर फिर भी लिख रहा हूँ क्योंकि इच्छा भी है और नियति भी है; शायद....
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