एक नाले की डायरी
चेन्नई डूबै बंगलुरू डूबै, डूबै ईर और बीर
पर जब जब दिल्ली डूबै, खिंच जाए तस्वीर
बारिश की ऐसी ही किसी डुबास में छपर छपर करते लेखक के हाथ कुछ पन्ने लग गए थे, जो किसी तरह भीगने से बच गए थे। प्रस्तुत लेख और कुछ नहीं, वही पन्ने हैं जो लेखक ने जस के तस लिख दिए हैं।
१६ जुलाई २०२१
सावन का महीना आ चुका है। बारिश की राह तकते लोगों को इस महीने का बड़ा इंतज़ार रहता है। जेठ आषाढ़ की गर्मी से तपते लोगों को ये महीना बड़ी राहत लेकर आता है। पर ये राहत हम नाली नाला समाज के लिए बड़ी आफ़त लेकर आती है। वैसे तो साल के बाकी महीनों में कोई हमारी तरफ नज़र उठा कर भी नहीं देखता पर बारिश के मौसम में तनिक भी किनारों से ऊपर उठ कर क्या बहो, लोग हमें ताने मारने लगते हैं, गालियाँ देने लगते हैं कि, "ये देखो! पहली बारिश में भर गया। अभी ये हाल है तो आगे न जाने क्या होगा।" वगैरह, वगैरह.. बिना ये जाने कि सावन भादौ में भर कर बहना तो हमारी फितरत में है। अरे, हमारे लिए तो अमीर खुसरो तक ने कहा है कि, "सावन भादौ बहुत चलत है, माघ पूस में थोरी; अमीर खुसरो यूँ कहें तू क्यों बनी रे मोरी।"
खैर, वो अलग ही दिन थे जब खुसरो जैसे बड़े नामचीन लोग हमारे नखरों, फितरत, अंदाज़ पर लिखा करते थे पर आजकल का जमाना तो उफ! क्या ही कहें। आदमी तो खैर आदमी है, अब तो आदमी सी फितरत चढ़ाए बैठे अपनी नाली नाला बिरादरी के लोग भी अपने नहीं रहे। अभी कल की ही बात है कि किसी अखबार का टुकड़ा बहता हुआ दिखा, उसमें दिल्ली के नालों की कहानी छपी हुई थी। मौसम की पहली बारिश में जरा किनारों को छोड़ कर सड़कों पर क्या बहा कि उसकी तस्वीरें छपने लगीं। दिल्ली वालों ने उसे सेलेब्रिटी बना दिया। अब दिल्ली के नाले ने बारिश के पानी से भर जाने पर अपने किनारों को छोड़कर सड़कों पर बह कर बस डुबो दी तो क्या बड़ा काम कर दिया। हम छोटे शहर के नाले नाली भी रिक्शा, स्कूटर, मोटरसाइकल वगैरह डुबोते ही रहते हैं। इस डुबोई डुबोए के कार्य के साथ हमारे मिस्त्रियों के स्कूटर, मोटर साइकल स्टार्ट करने, रिक्शा–रेहड़ी वालों के सड़क पार करवाने में किए श्रम को अर्थव्यवस्था में किए योगदान से जोड़ दिया जाए तो हमारा योगदान भी किसी दिल्ली, गुरुग्राम जैसे बड़े शहरों के नालों से कम नहीं निकलेगा, पर हमने कभी इस बात का घमंड नहीं किया। और इस जले पर नमक छिड़कता है वो दिल्ली के मिंटो ब्रिज के पास वाला नाला। हुह, आया बड़ा! इसकी भरम भराई की हर छोटी मोटी बात पर फोटो खिंचवाने की आदत तो.... खैर, छोड़ो।
इन शहरों की छपास की आदत से कुछ बचे तो हम छोटे शहरों वालों की मेहनत मुंबई के नालों की फर्जी स्पिरिट के आगे दब जाती है। मुंबई के नाले कोई अलग काम नहीं करते, पर वो मुंबई वालों की चालाकी से बनाई ‘स्पिरिट’ को तैराने का काम लेकर हमसे बाजी मार लेते हैं।
हमारे नाला बिरादरी में बड़े और छोटे शहर के झगड़े सुलटने में नहीं आ रहे और ये आदमियों की बिरादरी हम नाला बिरादरी में भी फूट डालने को स्मार्ट नाम का सिस्टम ले आए हैं। वैसे ये आदम जात होती बड़ी खराब है। जैसे ये लोग अपने जात पात में झगड़ते रहते हैं वैसे ही इन्होंने हम नालों में स्मार्ट नाम का एक जात बना दिया है। अब बताइए, जैसे हम गैर स्मार्ट नाले एक ही बारिश में बजबजा जाते हैं वैसे ही वो स्मार्ट वाले भी बजबजाते हैं, जैसे हम एक बारिश में शहर को तलैया बना देते हैं वैसे ही वो भी बनाते हैं, जैसे हम साल भर सड़ांध मारते रहते हैं वैसे ही वो भी सड़ांध मारते हैं पर आदम जात का गंदा दिमाग कि एक जैसे दो नालों में से एक को स्मार्ट बोल दिया और दूसरे को वैसे ही छोड़ दिया। दुःख की बात ये है कि उनकी हमारे समाज को बांटने की साजिश में ये स्मार्ट बन गए नाले भी आदम जात का साथ दे रहे हैं।
वैसे सच कहें तो अब समय आ गया है कि हम छोटे शहर के गैर स्मार्ट नाले नालियों को एक संगठन बनाकर बड़े शहर और स्मार्ट जात वाले नालों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए कि आखिर हममें क्या कमी है जो हल्की सी बारिश में शहर की सड़कों को लबालब भरने के बाद भी सारी चकाचौंध दिल्ली, बंबई और अब ये स्मार्ट बने नाले बटोर ले जाते हैं? क्या हम छोटे शहरों के गैर स्मार्ट नालों की जिंदगी जिंदगी नहीं होती? ठेकेदार से लेकर बाबू तक, अफसर से लेकर नेताजी तक सफाई के नाम पर सबके जेब भरने वाली सिल्ट जो हम अपने अंदर साल दर साल संजो कर रखते हैं, छोटे शहर के नालों का वो त्याग क्या इन बड़े शहर के नालों से किसी मायने में कम है? आखिर ये लोग कब तक हम छोटे शहर वालों का हक मारते रहेंगे? बताइए, क्या यही नालाईयत है? आखिर नाला समाज में कब वो दिन आएगा जब शहर छोटा हो या बड़ा, स्मार्ट हो या गैर स्मार्ट, युगपुरुष का हो या आदरणीय का, हर शहर के नालों को हल्की सी बारिश में भर जाने पर एक समान सम्मान मिलेगा?
आखिर कब आयेंगे हम छोटे शहर के गैर स्मार्ट नालों के अच्छे दिन? मूडी सुड...................
चौड़ी सड़कें, साफ पानी, बेहतर ड्रेनेज व्यवस्था नागरिक का अधिकार है, शहर के शहर होने की पहली शर्त है। जो सरकारें आज तक शहरों को कायदे से रहने लायक शहर नहीं बना पाईं, वो अब उनको फर्जी मुलम्मा चढ़ा कर स्मार्ट और वाइब्रेंट बनाने चली हैं।
व्यवस्था पर करारी चोट ।
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी 🙏💐
Deleteएकदम सटीक लेखन।
ReplyDeleteशुक्रिया विज्ञान 💐💖
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 19 जुलाई 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ब्लॉग को अपने मंच पर साझा करने के लिए आभार 🙏💐
Deleteआजकल के हालात पर सही लिखा
ReplyDelete🙏💐💐
Deleteचौड़ी सड़कें, साफ पानी, बेहतर ड्रेनेज व्यवस्था नागरिक का अधिकार है, शहर के शहर होने की पहली शर्त है। जो सरकारें आज तक शहरों को कायदे से रहने लायक शहर नहीं बना पाईं, वो अब उनको फर्जी मुलम्मा चढ़ा कर स्मार्ट और वाइब्रेंट बनाने चली हैं।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने। हर जगह यही हाल है। बातें बहुत होती हैं लेकिन धरातल पर क्या तस्वीर हैं इसे कोई नहीं देखने वाला
🙏💐
Deleteएकदम सटीक आपका जवाब नहीं सर!
ReplyDeleteशुक्रिया संजय जी 💐
Deleteअति उत्तम
ReplyDeleteधन्यवाद पंकज जी 💐💐
Deleteबहुत ही सटीक आंकलन किया है सर जी बेहद ही अद्भत ढंग से स्मार्ट सिटी बनाने की ढोंगी व्यथा को दर्शाया है ये रचना सच मे काबिले तारीफ है एक एक लाइन सटीक बैठती है आज की व्यवस्था के नाम पर
ReplyDeleteधन्यवाद 🙏💐
Deleteसटीक
ReplyDeleteशानदार तरीके से कहा गया व्यंग्य ...
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