ये वक़्त कुछ कहता है
वक़्त की पथरीली सड़क पर कुछ किस्से इस रफ़्तार से गुज़रे कि उन किस्सों के पीछे उड़ती धूल में ये दिखाई नहीं दिया कि क्या ये किस्से एक ही दौड़ का हिस्सा हैं, या फिर आने वाले इतिहास में अपने लिए जगह हथियाने को आपस में गुत्थमगुत्था हैं, या सबके रास्ते और मंज़िल अलग हैं और ये सिर्फ वक़्ती तौर पर एक साथ एक जगह से गुज़रे हैं. ग़ुबार थमा तो दिखा कि वक़्त की सड़क पर तेजी से गुज़रे ये चंद किस्से इस सड़क पर गहरे निशान छोड़ चुके हैं.
CAA, शाहीन बाग़, दिल्ली चुनाव, शरजील और शिकारा; ये कुछ नाम हैं जो देखने में तो कोई हाल-फिलहाल का ही किस्सा नज़र आते हैं पर इन नामों के पीछे कुछ कहानियाँ हैं, एक भरा-पूरा इतिहास है और इस इतिहास का किस्सा 1947 के तुरंत बाद के कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले से शुरू होता है. ये हमला सिर्फ कश्मीर पर कब्जे के लिए नहीं था, ये उसी उम्मत की शुरुआती कदमताल का हिस्सा था जिसकी गूँज आज सारी दुनिया भर में सुनाई दे रही है. कश्मीर पर उस इस्लामी हमले का असर ये हुआ कि हर उस हिस्से से जहां जहां इस्लामी फौज पहुंची हिन्दू साफ होते चले गए. ये एक बहुत ही गलत धारणा बन गई है कि कश्मीर में हिन्दू नरसंहार अचानक 1989 में शुरू हुआ. किसी भी प्रकार की गतिविधियों के पेड़ इतने बड़े स्तर पर अचानक यूँ ही नहीं उगते. उसके लिए जमीन समतल करनी पड़ती है, उचित प्रकार के तुष्टीकरण के बीज बोने पड़ते हैं, नफ़रत की फसल को खाद-पानी देना पड़ता है तब कहीं जाकर 1989 के हिन्दू नरसंहार की फसल पक कर तैयार होती है. इस्लामी उम्मत की जिस फसल की जमीन को पाकिस्तानी सेना ने समतल किया था उस जमीन पर बचे-खुचे हिंदुओं के संहार के बीज नेहरू के ख़ास शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर का सर्वेसर्वा बनते ही लैंड रिफॉर्म के नाम पर बो दिए थे जब उस रिफॉर्म के तहत हिन्दू मालिकों की जमीन छीन कर मुसलमान काश्तकारों में बांटी गई. अंततः इसकी परिणति 1989 के हिन्दू नरसंहार के साथ हुई.
सत्य सिर्फ एक होता है, वो मेरा सत्य या तुम्हारा सत्य नहीं होता. सत्य को अपने हितों के अनुसार परिभाषित करना धूर्तता होती है, अपने-आप से और अपने समाज के साथ धोखा होता है. ये वो लिजलिजापन होता है जो कंधार से लेकर पाकिस्तान और बांग्लादेश तक अपनी जमीन गंवाकर और फिर अपने बचे खुचे देश में भी इस्लामिक आतंकवाद के हाथों विस्थापित होकर भी गंगा-जमुनी तहज़ीब की अवैध संतान कश्मीरियत के गीत अपनी फिल्म में गवाता है.
हिंदुस्तान का दुर्भाग्य ये है कि यहाँ चप्पे चप्पे पर ऐसे ही शिकारों के मालिक व्यवस्था का हिस्सा बने हुए हैं.
शरजील इमाम का किरदार ऐसे लोगों के बरअक्स काफी चमक के साथ आता है क्योंकि ऐसे लोग शिकारे के मालिकों की तरह किसी आभासी दुनिया में नहीं जीते. इनके लिए इनकी आसमानी किताब ही दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई होती है और उस आसमानी सच्चाई को जिहाद की वास्तविकता तक उतारने के लिए ये चिकेन नैक तक पहुंच जाते हैं, पर इसके मुक़ाबिल शिकारे के मालिकों के हाथ फिल्म तक में उस कश्मीरियत नैक तक नहीं पहुंच पाते जो इनको इनके ही देश में शरणार्थी बना देती है. शरजील जैसे लोगों के मकसद को शक्ति इन्हीं शिकारे के मालिकों के लिजलिजेपन से मिलती है जो दुर्भाग्य से इस हद तक बहुतायात में उपलब्ध है कि इसकी ही उर्वरा शक्ति से ये क़ौमी मजलिसें सरकारों को अपनी उंगुली पर नचाती आ रही हैं.
समाज के एक हिस्से में फिल्मकार पॉलिटिकल करेक्टनैस के लिबलिबेपन से भरे शिकारे पर सवारी करते नज़र आते हैं जबकि दूसरी तरफ शरजील जैसे लोग अपने मजहबी मरकजों का शाहीन बाग बनाने में जुटे हुए हैं.
CAA का सही मायने में फायदा ये हुआ है कि इसने पिछले सत्तर-बहत्तर सालों से वातावरण में फैले गंगू-जामुनी तिलस्म के पार की दुनिया को सबके सामने लाने का काम किया है. इस गंगू-जामुनी तिलस्म के दरवाजे जब एक के बाद एक करके टूटने शुरू हुए तो आख़िरी दरवाजे के पार गज़वा-ए-हिन्द और उम्मत की प्री मैच्योर डिलीवरी हो चुकी थी और इस समय से पहले जन्मे बच्चे का जिम्मा लिया शाहीन बाग ने.
शाहीन बाग में जो हो रहा है वो दरअसल सिर्फ किसी कानून का विरोध नहीं है. ये एक राजनीतिक प्रयोग है जिसमें उम्मत की सालों से दबी गज़वा-ए-हिन्द की उम्मीद का बहुत ही सधे हाथों से प्रयोग किया गया है. दिल्ली ऐसे राजनीतिक प्रयोगों से पहले भी दो-चार हो चुकी है. घटनाओं की हूबहू पुनरावृत्ति हो रही है, फर्क बस इतना भर है कि पहले प्रयोग के नियंत्रण का सिर्फ एक चेहरा था जिसे नियंत्रण करना आसान था, काम निकल जाने के बाद उसे छोड़ना आसान था. पर इस बार इस प्रयोग की प्रक्रिया अनियंत्रित हो गई. जिन्न को बोतल से बाहर निकाल तो दिया पर इसे बोतल में वापस भेजने का तरीका किसी को नहीं पता. पूरी संभावना है कि अगर नियंत्रण में नहीं लाया गया तो ये जिन्न अपने मालिकों की तीन इच्छाएं तो पूरी करेगा पर फिर उसके बाद.....
दिल्ली के मालिकों की एक इच्छा दुबारा दिल्ली सरकार बनाना था जो उपर्युक्त कारणों से पूरी होती दिख भी रही थी. पर सारी दिल्ली जिन्नात की हद में नहीं थी लेकिन उसके सामने विकल्प भी दो ही बचे थे; पहला, प्रतिकार करें और अपना सर्वस्व उसे सौंप कर अपना सामान्य जीवन भी दुरूह बना लें जिसे वो पहले ही केंद्र की धुरी बना चुके थे या फिर फिलहाल पहले अपने सामान्य जीवन हो आसान बना लें. दिल्ली ने दूसरा विकल्प चुना.
ग़ुबार छंट चुका है. समय चक्र पूरा हो चुका है. कहानियों वाला भेड़िया अब सर पर खड़ा है. शाहीन बाग के विध्वंसकारी प्रयोग ने देश को 1947 के इतिहास की पुनरावृत्ति के मुहाने पर खड़ा कर दिया है. इसके रास्ते की रुकावट के रूप में एक ओर अभूतपूर्व शक्तियों के साथ भेजी गई व्यवस्था है जो अल्पकालिक फायदे के लिए इस प्रयोग को कुचलने में असफल रही दूसरी ओर व्यवस्था को चुनकर भेजने वाले लोग हैं जो अपनी ही व्यवस्था को जब अपना सामान्य जीवन भी दुरूह बनाते हुए देखते हैं तो यदा-कदा इसकी खीझ अपनी ही भेजी व्यवस्था पर उतारते रहते हैं.
भविष्य के गर्त में क्या छिपा है कहना मुश्किल है पर इतना निश्चित है कि वर्तमान परिदृश्य की अनुगूंज लंबे समय तक वातावरण में व्याप्त रहेगी. साथ ही अब तक गंगू-जामुनी और भांति-भांति की इयतों में दबी ढकी राजनीति का भविष्य भी ऐसा नहीं रहेगा.
याद आती हैँ वो बात किसी की दशकों पहले वाली, "गृह युद्ध और बंटवारा फिर से होगा, उसके अलावा इस मुद्दे का कोई और अंत नहीं, पर उस वक़्त के लिए आप कितने तैयार होंगे ये मुश्किल है !"
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