नॉन प्राइम टाइम




  "आप चाहें तो समझने की कोशिश कीजिये, वर्ना आंख बंद करके पड़े रहिये. मसला कश्मीर से जुड़ा है. जी हाँ, वही कश्मीर जहाँ पर सत्ता की मसल पॉवर लोगों की बुनियादी जरूरतों को दबाने की मिसाल बन रही है. ये मसला कश्मीर के सत्तर सेपरेटिस्ट को पकड़ने का है, उन सत्तर सेपरेटिस्ट को पकड़कर आगरा भेजने का है, आगरा भेजने का तो है ही पर जो बात आप बिटवीन द लाइन पढ़ने से चूक जाते हैं वो ये है कि किसी को भी पकड़ कर आगरा भेजनेे पर मिलने वाले प्रति व्यक्ति ₹500 और एक कंबल के गायब होने का भी है... जी हाँ! सही सुना आपने, पांच सौ रुपए और एक कंबल को आपकी नज़रों से बचा कर ग़ायब कर दिया जाता है. क्या उस कंबल और रुपए पर उन सेपरेटिस्ट के परिवारों का पहला हक़ नहीं बनता था? आप उन परिवारों को इस हक़ से कैसे वंचित कर सकते हैं? क्या सेपरेटिस्ट होने का ये मतलब है कि उन परिवारों को ₹500 और कंबल के अधिकार से वंचित कर दिया जाए? पर जब मीडिया मीडिया न रह कर गोदी मीडिया बन जाए तो सरकार से ऐसे सवालों की उम्मीद बंद कर देनी चाहिए. ये ₹500 और कंबल गायब होना सिर्फ साजोसामान से जुड़ा मसला नहीं है, ये मसला है हमारी व्यवस्था के लाचार होने का, ये मसला है कि किस तरह मसल पॉवर वाली व्यवस्था किसी गरीब सेपरेटिस्ट तक का शोषण करने से नहीं चूकती. ये ₹500 और कंबल का गायब होना सिर्फ उन गरीब सेपरेटिस्ट के हक़ का गायब होना ही नहीं है, ये हम लोगों के बीच से उस चेतना का गायब होना है जो किसी मज़लूम का कंबल बनती.... मतलब संबल बनती. माफ कीजियेगा, भावनाओं में बह गया था, और ये भावनाएं पत्रकारिता के लिए जरूरी भी हैं. यही वो भावनाएं हैं जो आज भी जस्टिस लोया और गौरी लंकेश को हमारे आपके बीच जिंदा रखती हैं, पर समाज के रूप में जब हमारी संवेदना जय श्री राम के नारों और अंधभक्ति तक सीमित हो जाए तब ऐसे सवालों और भावनाओं की कोई अहमियत नहीं रह जाती. पर सवाल ये है कि किसी गरीब सेपरेटिस्ट के ₹500 और एक कंबल गायब होने का सवाल उठाएगा कौन? सवाल ये भी है कि आजकल की गोदी मीडिया जो सीधे PMO और होम मिनिस्ट्री में एक्सेस रखती है, हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी में भी गुंडागर्दी करती है वो किसी गरीब सेपरेटिस्ट के ₹500 और कंबल का मसला उठाएंगे भी क्यों? ये सब गुंडागर्दी वगैरह जो भी है बहुत डरावना है. हमारी और हम जैसी पत्रकारिता के लिए ये समय बहुत खराब है पर हम फिर खड़े होंगे. अभी हम ग्यारह है, ग्यारह सौ और फिर ग्यारह हजार भी होंगे. मुझे इन सेपरेटिस्ट के घरवाले, बीवी~बच्चे लिखते हैं, व्हाट्सएप करते हैं, मुझसे पूछते हैं कि आखिर हमारी क्या गलती थी जो ये कंबल और पांच सौ रुपए भी हमारे हाथ से सरकार छीन रही है? और मेरे पास उन सवालों के कोई जवाब नहीं हैं, जवाब किसी के पास नहीं हैं. आने वाले वक्त के साथ ये ₹500 और कंबल इतिहास के किसी कोने में चले जायेंगे, दफन हो जाएंगे पर इन कंबल और पांच सौ रुपयों की रूह जिंदा रहेगी और यकीन मानिए कि जब इन कंबल और रुपयों की रूह आपके सपनों में आकर आपसे सवाल करेगी तो आपके पास देने के लिए कोई जवाब नहीं होंगे."

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