फुटबॉल, जुनून, राष्ट्रवाद और डेथ मैच!

फुटबॉल, जुनून, राष्ट्रवाद और डैथ मैच..


    मैच की आखिरी गेंद, चेतन शर्मा अपने पूरे रन अप के साथ दौड़ते हुए, जीत के लिए पाकिस्तान को चाहिए चार रन, इस आखिरी गेंद को खेलने के लिए क्रीज पर हैं जावेद मियाँदाद... शर्मा, राइट आर्म ओवर द मीडियम फ़ास्ट, शर्मा ने हाथ घुमाया और ये क्या, ये तो फुलटॉस गेंद... मियाँदाद ने पूरी ताकत से बल्ला घुमाया, गेंद मिडविकेट के पार.. और ये छक्का....
   एक बेहद ही रोमांचक और इतिहास में दर्ज होने लायक मैच जिसमें आखिरी गेंद तक नाखून चबाता सारा देश उस बॉल के बाद एक साथ आह कर उठा. 2011 का वर्ल्ड कप याद है जब धोनी ने छक्का मार कर वर्ल्ड कप जितवाया था, उस छक्के के बाद भी देशवासियों के मन में कम से कम छः महीने तक हिलोरें उठतीं रहीं थीं.

   अब आप ये सोच रहे होंगे कि मैं कहाँ फुटबॉल का हैडिंग टांक कर आपको क्रिकेट बाँच कर कंफ्यूजिया रहा हूँ तो ऊपर लिखा सारा कुछ दरअसल फुटबॉल के बारे में ही समझाने का प्रयास है. आप अगर क्रिकेट मैच के साथ दर्शाए रोमांच, उत्तेजना, विषाद, राष्ट्रवाद वगैरह सारी भावनाओं को क्रिकेट खेलने वाले दस~ग्यारह देशों की तुलना में दो सौ से ज्यादा देश, पच्चीस करोड़ से ज्यादा खिलाड़ी और चार सौ करोड़ से ज्यादा दर्शकों के उन्माद से गुणित करो तो जो शै निकल कर आती है वो फुटबॉल है.

   तो ये फुटबॉल है पर आखिर इस खेल में ऐसा क्या है जो लोगों में इतना उन्माद भरता है कि लगभग सारी दुनिया इस खेल की दीवानी है. 'उन्माद' .. मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति, जितना पुराना मनुष्य के साथ उन्माद जुड़ा हुआ है उतना ही पुराना ये खेल है. किसी पड़ी चीज में ठोकर मारने से शुरू हुआ ये खेल आज भी अपने उसी ही नैसर्गिक रूप में मौजूद है. बचपन में गलियों में पड़े किसी पत्थर, बोतल या पड़े किसी भी टुकड़े पर अचानक से यूँ ही ठोकर मारते हुए खामखां में एक दूसरे के पीछे भागते हुए सांस फूलने तक न जाने कौन से गोल पोस्ट तक पहुंचाने का कारनामा लगभग हर बचपन की निशानी रहा है. फुटबॉल से मुहब्बत उसी जमाने से शुरू हो जाती है, जितना आसान फुटबॉल से मुहब्बत होना है उतना ही आसान इसे खेलना भी है.

   दोनों तरफ सेनाएं अस्त्र~शस्त्रों से सुसज्जित हो तैयार खड़ी हैं. घुड़सवार, रथी, महारथी, अतिरथी अपनी अपनी जगह पर मुस्तैद हैं. सैनिकों की तलवारें म्यान से बाहर आ चुकीं हैं. इधर रैफरी की सीटी बजी उधर रथियों के घोड़ों की टापों से युद्धक्षेत्र धूलधूसरित हो उठा है. तलवारें हवा में लहरा रही हैं, नरमुंडों को पैर की ठोकरों से हवा में उछाला जा रहा है. एक पक्ष के सेनापति ने दूसरे पक्ष के सेनापति का सर धड़ से अलग कर दिया, इधर लेफ्ट फ्लैंक से स्ट्राइकर ने खिलाड़ियों को छकाते हुए शानदार राइट फुटर मारा, बॉल गोलकीपर को छकाते हुए सीधे गोलपोस्ट के अंदर और ये गोल...
   टाइमआउट के साथ युद्ध समाप्ति का शंख बज उठता है.

  मैदान के भीतर खेले जाने वाला खेल मैदान के बाहर भी युद्ध का सा माहौल खड़ा कर देता है. समर्थक आपस में भिड़ जाते हैं. 'दुश्मन का दुश्मन का दोस्त' की तर्ज पर दुश्मन के दुश्मन राष्ट्र के समर्थकों के साथ दोस्त जैसा व्यवहार होता है.

   उत्साह, जुनून, रोमांच, उत्तेजना, राष्ट्रप्रेम.. न जाने कितने ही मनोभाव आपस में गुत्थमगुत्था हो जाते हैं. अब बात फुटबॉल के साथ जुड़े जुनून और राष्ट्राभिमान की हो ही रही है तो इससे जुड़ा एक किस्सा याद आ रहा है वो आपको बताता हूँ.

   तो ये किस्सा है सन 1942 के विश्वयुद्ध का जब नाजी सेनाएं एक के बाद एक शहर पर कब्जा करते हुए रूस के अंदर घुसी जा रहीं थीं. जब नाजी सेनाओं ने रूस के कीव शहर पर कब्जा किया तो उस कब्जे में बतौर युद्धबंदी रूस के एक मशहूर क्लब 'डायनेमो' के कुछ खिलाड़ी भी शामिल थे. अब खिलाड़ी युद्धबंदी कैसे ये एक अलग कहानी है पर आप मान लो कि थे.

   जर्मन सेनाओं ने इन खिलाड़ियों को बेकरी के काम पर लगा दिया. कुछ समय तो ये खिलाड़ी चुपचाप बेकरी के काम में लगे रहे पर फिर इनके अंदर का फुटबॉल प्रेम हिलोरे मारने लगा तो इन्होंने काम खत्म होने के बाद पास के मैदान में फुटबॉल खेलना शुरू कर दिया.

   नाजी सैनिकों ने जब रूसी बंदियों को फुटबॉल खेलते देखा तो अपनी श्रेष्ठता के दम्भ में इन खिलाड़ियों को उस मैदान की जगह शहर के मुख्य स्टेडियम में खेलने की सुविधा देने के साथ अपनी टीम के साथ खेलने का प्रस्ताव दे दिया. युद्ध हारे हुए खिलाड़ियों को इस प्रस्ताव में अपने खोए हुए आत्म सम्मान को पाने के लिए आशा की एक किरण दिखाई दी और उन्होंने इस प्रस्ताव को तुरंत मान लिया.

  नाजी सेना के खिलाड़ियों के साथ होने वाले मैच के लिए उन्होंने अपनी टीम को एक नया नाम 'स्टार्ट फुटबॉल क्लब' दे दिया.

   पहला मैच 12 जून 1942 को हुआ जिसमें स्टार्ट ने नाजी खिलाड़ियों को आसानी से हरा दिया. नाजी हार पर नाराज तो हुए पर उन्होंने कम तैयारी का बहाना बनाते हुए स्टार्ट के साथ अपने दम्भ की क्षतिपूर्ति के लिए दूसरा मैच रखा, नाजी उसे भी हार गए.

   आर्य सर्वोच्चता का मिथ हल्का होता हुआ प्रतीत होना नाजियों को स्वीकार नहीं हुआ. उन्होंने तीसरे मैच में अपने सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध खिलाड़ी मैदान में उतारे. नतीजा, 19 जुलाई 1942 को हुए इस मैच में नाजी सेना रूसी युद्धबंदियों की टीम स्टार्ट से मैच 5~1 से हारी.

   नाजियों के चेहरे पर चढ़ी झूठी आर्य श्रेष्ठता की परतें टूट कर गिरने लगीं. तीसरी हार से बौखलाए नाजियों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने को स्टार्ट टीम के साथ एक मैच और रखा. 26 जुलाई 1942 को हुए इस मैच में युद्ध में हारा हुआ स्वाभिमान एक बार फिर जीत गया. लगातार चार हारों ने नाजियों के अहंकार को इस कदर चोट पहुंचाई कि उन्होंने स्टार्ट खिलाड़ियों को मैच जीतने पर डर दिखाना शुरू कर दिया, पर रूसी खिलाड़ियों का राष्ट्रवाद चरम पर था. युद्ध में हारे अपने लोगों को नाजियों पर हंसने का एक मौका देने के लिए वो कुछ भी सहने को तैयार थे. नाजी हर तरह की कोशिश के बाद भी अगला मैच हार गए.

   इस हार ने श्रेष्ठता के दम्भ को उसके चरम के निम्नतम स्तर पर पहुंचा दिया था. स्टार्ट क्लब के खिलाड़ियों से एक और मैच खेलने के प्रस्ताव के साथ साफ~साफ कह दिया गया कि अगर इस बार उन्होंने जीतने की कोशिश भी की तो इस गुस्ताख़ी की कीमत उन्हें अपनी जान से चुकानी पड़ेगी. इस मैच के लिए नाजियों ने पूरे शहर में इसे फाइनल मैच बता कर पोस्टर भी लगा दिए, पर रूसी खिलाड़ी भी तय कर चुके थे कि युद्ध में हारे तो हारे पर फुटबॉल के मैदान में जीत कर वो अपने देशवासियों को नाजी दम्भ पर हंसने का मौका जरूर देंगे.

   मैच शुरू होते ही स्टार्ट क्लब एक गोल से आगे था और मध्यांतर तक स्कोर 3~1 से स्टार्ट के खिलाड़ियों के पक्ष में था. मध्यांतर के बाद अपने अपनी एक और हार से होती बेइज्जती के अंदेशे से जर्मन रेफरियों ने अपने खिलाड़ियों के सभी फ़ाउल नजरअंदाज करने शुरू कर दिए, पर सीधे गोलपोस्ट में घुसी फुटबॉल को कैसे अनदेखा करते. नतीजा, मैच के अंत में 5~3 की स्कोरलाइन के साथ युद्धबंदियों का क्लब स्टार्ट एक बार फिर मैच जीत चुका था.

   जीत की खुशी मनाते रूसी दर्शकों को बंदूक की नोंक पर खुशी मनाने से रोका गया. स्टार्ट के सभी खिलाड़ियों को 'बाबीदार' नाम की जगह ले जाया गया, जहां पर उनको एक लाइन से खड़ा करके गोली मार दी गई.
   खिलाड़ियों का फुटबॉल के लिए जुनून और सैनिकों का देशप्रेम मानो एकाकार होकर पुनः जीवित हो उठे.

   इतिहास के पन्नों में यह मैच 'डैथ मैच' के नाम से दर्ज है.

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