माँ

माँ

   ट्रिन ट्रिन...
   मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी. आज तीसरा दिन था जब मैं घर से ऑफिस जाने को निकला पर गया नहीं. न जाने क्यूँ ऐसे ही बेवजह भटक रहा हूँ. बेवजह, जो शायद सिर्फ एक शब्द भर है. क्या वाकई में कुछ भी बेवजह होता है? शायद नहीं, क्योंकि अगर ऐसा कुछ होता तो मैं शहर से दूर इस बियावान जंगल में अक्सर यूँ ही नहीं आता. फिर मेरे यहाँ आने का सबब क्या है? शायद रिश्तों से भटकाव की वजह ही है जो मुझे एक बियावान से दूसरे बियावान में खींच लाती है. हम अपने चारों ओर एक जंगल ही तो बसाए हुए हैं. रिश्तों का जंगल, जहां का हर रिश्ता पेड़, झुरमुट या झाड़ी है. इंसानों का कहीं दूर~दूर तक नामोनिशान नहीं. अपना खुद का वजूद इन सबके बीच कहीं खो सा जाता है, खुद की तलाश इन सबसे बाहर आकर ही हो सकती है पर क्या इस सबसे बाहर आना इतना ही आसान है? शायद इस मुश्किल की वजह से ही मैं यहां चला आता हूँ क्योंकि शहरी जंगल की तरह ये कम से कम मेरे सामने कोई सवाल तो खड़े नहीं करता. यहां सबके पास खड़े होने की अपनी जमीन है और सबके पास अपनी कहानी कहने के लिए एक तयशुदा दायरा है. शायद मैं भी अपनी कहानी सुनाने ही यहां चला आता हूँ.
   पर मेरी कहानी यहां से शुरू नहीं होती. कहानियां कभी इस तरह अचानक शुरू नहीं होतीं. सालों लग जाते हैं कोई किरदार बनने में, उन किरदारों की कहानियां बनने में, उन किरदारों की अलग~अलग कहानियां आपस में जुड़ने में, तब कहीं जाकर उन किरदारों से भरी कहानी की कोई मुकम्मल तस्वीर आंखों के सामने आ पाती है.
   हर कहानी की तरह मेरी कहानी में भी एक मुख्य किरदार था और वो किरदार तुम थीं माँ.
  बचपन, खेल, पढ़ाई, कैरियर वगैरह  के बीच में दौड़ते भागते अहसास ही नहीं हुआ कि मैं किस तरह से आहिस्ता~आहिस्ता बेजुबान कठपुतली बनता जा रहा हूँ. कठपुतलियां बोला नहीं करतीं इस बात का अहसास मुझे पहली बार तब हुआ जब मैंने पहली बार तुम्हें सहबा के बारे में बताया.
  करन जौहर की किसी फिल्म जैसा कुछ होता तो तुमने 'ओ माय गॉड! माय सन हेज़ फालेन इन लव' बोलकर कर मुझे सीने से लगा लिया होता, पर तुम्हारे पांच साल आठ महीने और अब छः दिन तक मुझसे बात न करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि असल में ज़िन्दगी इन फिल्मी नर्म फाहों से आगे बढ़कर घाव पर लगने वाले नश्तर की चुभन से कम दर्द नहीं देती.
   सहबा के साथ होने पर मुझे मेरे खुद के वजूद का अहसास पहली बार हुआ, वो वजूद जो तुम्हारे मातृत्व के बोझ तले कहीं दबा पड़ा था.
  पूर्णता की ओर हर कोई देखता है पर उन छोटे~छोटे अधूरेपन की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती जिनसे मिलाकर पूर्णता बनती है. तुम्हारा मातृत्व मुझसे परिपूर्ण तो हुआ पर इस परिपूर्णता में मेरा हिस्सा सिर्फ दीवार में लगाई ईंट भर का ही था, उससे ज्यादा कुछ नहीं. सहबा के साथ में पूर्ण होता था माँ, पर तुम्हारे मातृत्व का अहंकार इस पूर्णता को स्वीकार नहीं कर पाया. तुम अपने मातृत्व के अहंकार के आगे इतना भी नहीं सोच पाईं कि मेरी व्यक्तिगत संपूर्णता का अर्थ तुम्हारे मातृत्व का अधूरापन नहीं है.
   तुम्हारा मातृत्व पहले भी इस दम्भ से भरा हुआ था कि मुझे तुम्हारे साथ बांटने वाला कोई नहीं था, पर फिर ये मातृत्व कहाँ रहा. ये तो कुछ ऐसा रहा कि तुम्हारी कोई निर्जीव रचना हो और उसका सर्वाधिकार सुरक्षित हो और मुझे भी तुम्हारे सिवाय पता कि क्या था. मातृत्व तुम्हारा व्यक्तिगत निर्णय था. उसकी पीड़ा, उसके दुःख, सुख के साथ कहीं से भी ये शर्त नहीं जुड़ी हुई थी कि बड़े होकर मुझे इसका मूल्य चुकाना होगा.
   अब इसका मूल्य मेरे साथ सहबा भी चुका रही है.
   पता नहीं क्यों ये कहानी कहते कहते अचानक से सांस तेज हुई जा रही है, कुछ ऐसी थकान का अहसास जैसे मेरे भीतर ही कोई मुझसे लड़ रहा हो. विद्रोह और समर्पण का ये युद्ध एक एक करके रिश्तों की गिरह खोलता जा रहा है. अंदर ही अंदर कुछ ऐसा है जो टूट कर बिखर जाने की उस हद तक पहुंच चुका है जहां रिश्तों की रुमानियत सिर्फ एक शब्द भर बन कर रह जाती है. हर खुलती गिरह और रिश्ते की टूटन के साथ शरीर हल्का सा होता जा रहा है. इतना हल्का कि मैं खुद से दूर खड़ा होकर भी अपने आप को महसूस कर सकता हूँ.
पेड़ अपने दायरे से बाहर तब ही निकलता है जब वो जड़ छोड़ चुका हो.

      ट्रिन.... ट्रिन....
   मोबाइल की घंटी अब भी लगातार बज रही थी पर बियावान में अक्सर ऐसी आवाजों पर कोई भी अपने दायरे से बाहर नहीं निकलता.


अंत दो....

   मोबाइल  अब भी लगातार बज रहा था. न जाने किस वहशत से डरता हुआ फोन की आवाज को लगभग अनसुना करते हुए मैं कब घर के दरवाजे तक पहुंच गया पता ही नहीं चला. दरवाजा खोल कर अंदर दालान में दाखिल हुआ ही था कि अंदर अंधेरे कोने से आती आवाज सुनकर ठिठका.
   "अंदर संभाल कर आना."
   अंधेरे में एक साया सा दिखाई दिया.
 "शाम दालान में सांपों का एक जोड़ा दिखाई दिया था.............. बेटा. बहू से तुम्हें फोन करने को कहा था..... उसकी तबियत खराब है; इसलिए मैं..............."
   शब्द कुछ टूटे हुए से थे, मानो सालों से जमी हुई बर्फ के अंदर से निकल कर आ रहे थे. दालान में अब भी अंधेरा था पर दूर कहीं टिमटिमाते बल्ब की रोशनी से आगे का रास्ता हल्का~हल्का दिखाई दे रहा था.

Comments

Popular posts from this blog

सनातन और पटाखे

सब कुछ 'ख़ुफ़िया' है.

आपदा में बुद्ध होना