सिद्धांतों के अर्थशास्त्र

सिद्धांतों के अर्थशास्त्र

  घासीराम कुछ अजीब सी ही फितरत का इंसान है. बचपन में उसने स्कूल जाने के नाम पर कंचे के गोले इकट्ठे किए, मिड डे मील में मास्साब के साथ सहभागिता में नए सोपान स्थापित किए. बड़ा हुआ तो चने बेचे, भेल~पूरी की ढकेल लगाई, मनोहर~कहानियां और सरस~सलिल की किताबें आध्यात्म के कलेवर में लपेट कर बेचीं. जब लोगों की आध्यात्म की समझ बढ़ने लगी तो घासीराम आध्यात्म की किताबों को सेक्स के तड़के में लगा कर बेचने लगा. छोटी~मोटी चोरी और पॉकेटमारी का पार्ट टाइम काम भी वो करता था. किसी एक जगह वो टिक कर नहीं रहता. कह सकते हैं कि 'रमता जोगी बहता पानी' कहावत का सार उसके जीवन वृत से छलकता रहता है.
  इसलिए जब इस बार घासीराम को इडली~सांभर की ढकेल लगाते देखा तो कोई ताज्जुब नहीं हुआ. हम भी हिन्दुस्तानियों की पुरानी आदत कि 'पेट चाहे घर पर ही भरेंगे पर स्वाद हर जगह का लेंगे' से मजबूर होकर घासीराम की तरफ निकल लिए.

  एक इडली डकारते हुए दुबारा सांभर लेने के लिए कटोरी के साथ 'ये इडली~सांभर की ढकेल क्यों' का सवाल घासीराम की तरफ बढ़ा दिया. सवाल सुनते ही घासीराम के चेहरे पर नेताओं की सी विरक्ति का भाव उतर आया. उनके प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखते हुए निर्विकार चेहरे जैसी शक्ल बनाते हुए ही उसने उत्तर दिया.

  "उ का है साहेब के उ टिक्की बनाने वाले बहुते जियादा हो गए थे सो धंधा तनिक मंदा हो गया था. उसे हम इ इडली का दूकान खोल लिए रहे."

  "अरे पागल! ऐसे सीधे~सीधे नहीं बोलते. ऐसे बोल कि टिक्की में तेल मसाले बहुत ज्यादा लगते थे. लोगों का सेहत ख़राब होता था जो हमसे देखा नहीं जाता था, इसलिए हम इडली सांभर की ढकेल लगा लिए."
  हमने उसकी सीधी~साधी बातों में राजनीति शास्त्र का तड़का लगाने की कोशिश की.

  "का फरक पड़े है साहेब? हमरा मतबल तो कुल मिला के अपना पेट भरे से ही है."
  घासीराम ने बर्तन का ढक्कन खोला तो उसमें से इडली को पकाती यथार्थ की तपती भाप हमारे चेहरे की तरफ बढ़ी, चेहरे पर कुछ जलता हुआ सा महसूस हुआ. बात अर्थशास्त्र के सिद्धांत से निकल कर सिद्धांतों के अर्थशास्त्र पर आ कर अटक गई.

  "अबे इतनी बड़ी बड़ी बातें करेगा तो लोग तुझे भी समझदार समझेंगे. तेरी भी इज्जत बढ़ेगी."

  "कउनु इज्जत बिज्जत ना बढ़े है साहब. सब लोग जाने हैं कि धंधा बढ़िया न चल रहा होगा तभी इका बदली किए है. वैसे उ दरोगा जी टोक रहे के जब तेरे को कमाई पाकिटमारी से ही करनी है तो ई घड़ी~घड़ी नौटंकी काहे करता है."
  दूसरा वाक्य हमारे कान में बोल कर घासीराम खी खी करके हंसने लगा.
  राजनीति के अर्थशास्त्र का सामान्य नियम है कि राजनीति और अर्थ का मिलन अवश्यम्भावी है, जिसने इस क्षितिज को देख लिया उसका ही बेड़ा पार है.

  "तेरा ठेला पहले किसी और पार्टी के दफ्तर के आगे लगा था अब किसी और के दफ्तर के पास, तेरे बंधे हुए ग्राहक छूटेंगे नहीं?" हमने आखिरी इडली को दबोचते हुए एक आखिरी सवाल और घासीराम के आगे दाग दिया. आखिरी इसलिए क्योंकि हमारी सहूलियतों का तर्कशास्त्र भी इस इडली के ख़त्म होने के इंतजार में था.

  "का फरक पड़े है साहेब! जब उहाँ अपना ठेला लगाए रहे तो इहाँ वाले भी हमरे पास आये रहे. कभी न आए तो अपने आदमी भेज दिए रहे और हमरी टिक्की के मजे लिए रहे. अब इहाँ आ गए हैं तो उ लोग भी आ ही रहे हैं साहब. अंदर की बात है साहेब के जब जबान को स्वाद लग जाए तो इ पार्टी उरटी का भेद न रहता. रात के अँधेरे में इ सब अपना चखना गिलास लेकर इहाँ आते रहे. जब इ लोग आपस में बैठ के गिलास टकराते हैं न साहेब, तब कउनु की शकल पहचानने में नाही आती. कउनु की टोपी कउन के सर बैठेगी कतई पता न लगे है साहब. उ समय सब एक ही सीरत के दिखे हैं मुझे तो." घासीराम धीरे से कान में फुसफुसा कर बोला.
  घासीराम बोला तो हमारे कान में था पर हमें उसके शब्द की गूंज कहीं दूर से आती प्रतीत हुई. हमने घासीराम के चेहरे की तरफ गौर से देखा तो उसका चेहरा कुछ बदलता सा महसूस हुआ. उसके चेहरे पर काइयांपन के निशान से उभरने लगे. धीरे~धीरे घासीराम का रंग रूप बदलने लगा और उसका कद बढ़ने लगा. हमने गर्दन उचका कर देखा तो उसका सर गायब था और उसकी जगह टोपी लगी दिखाई दी. अचानक उसने हमारे कंधे पर हाथ रख कर हमें हिलाया. हम जैसे नींद से जागे, देखा तो सब कुछ वैसा ही था. जो देखा वो भ्रम था शायद. हमने खटाखट से घासीराम को उसकी इडली के पैसे पकड़ाए और वहां से सरपट ऐसे निकले जैसे कोई भूत देख लिया हो.

अंत में
  हम्माम के नंगे कहावतों की दुनिया से निकल कर वास्तविकता के धरातल पर उतर चुके हैं. बेशर्मी की चादर में भर भर कर मुनाफा समेटा जा रहा है. घटियापन की मुनाफाखोरी अपने पिछले बनाए रिकॉर्ड वाले निशान से ऊपर बह रही है.
  पुरानी सारी मान्यताएं ध्वस्त होने को हैं, सच के नए संस्करण हर रोज लिखे और मिटाये जा रहे हैं. हर आने वाले दिन के साथ कल बोले गए सच को झूठा साबित करने की होड़ सी लगी हुई है. वफ़ादारी और ईमान जैसे शब्दों का वजन इतना हल्का हो चुका है कि आप इन्हें गुब्बारे में भर कर गुब्बारे को उड़ा सकते हो.
  विचारों से विरोध उसी स्तर तक रह गया है जब तक उसे निचोड़ने की संभावना हाथ न आए.

  अभी~अभी खबर मिली कि घासीराम इडली~सांभर के धंधे को छोड़ कर अब किसी पार्टी का नेता बन गया है...

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