हाय चेतना!!



  'दृश्य एक'

  क्रांतिवीर जंतर मंतर पर मोमबत्ती लेकर खड़े हुए हैं. हाथ में लगी तख्तियों पर गर्व के साथ 'आय एम हिन्दू एंड मुस्लिम आर माय फ्रेंड्स', 'डोंट मेक इंडिया लिंचीनिंग कंट्री' लिख कर पता नहीं किस दिशा की ओर मुंह करके 'जस्टिस फ़ॉर तबरेज' के नारे भी लग रहे हैं. चेतना की थोक की मंडी का मजमा सज चुका है, क्रांति की फ्रैंचाइज़ी लेने के लिए नए-नए रंगरूट लाइन लगा कर खड़े हुए हैं.
"आप यहाँ पर क्यों हैं?"
"आपको दिखता नहीं कि देश का गंगू जुम्मनी ढांचा खतरे में है?" चेतना की मंडी में नया-नया दाखिल हुआ रंगरूट अपने हिस्से की क्रांति की फ्रैंचाइज़ी के प्रमाणपत्र को क्रांति के लिए लाई हुई मोमबत्ती की रौशनी में चमकाते हुए बोला. हैशटैग क्रांति का समाज के हित में इतना योगदान तो रहा ही है कि मोमबत्ती बनाने की जो कला समाज विलुप्त होती जा रही थी कमसकम ये क्रांति उसे जिंदा तो रखे हुए है.
"पर ये गंगू जुम्मनी ढांचा तो तब भी खतरे में ही रहा था जब जंतर मंतर पर मोमबत्ती जलाने का कोई फैशन तक नहीं था.."
"इसका मतलब कि अब इंसानी जान की कोई कीमत नहीं होनी चाहिए?" रंगरूट जेब से मोमबत्ती की डिब्बी निकालते हुए बोला.
"जरूर होनी चाहिए. चोर-उचक्कों-छिनैतों-डकैतों के भी मानवाधिकार होते ही हैं."
"देखिये ज्यादा जरूरी बात ये है कि मरने वाले का नाम तबरेज था."
  चेतना अपनी निकृष्टता के सर्वोच्च बिंदु तक पहुंच चुकी है.

  'दृश्य दो'

  मुजफ्फरपुर का एक अस्पताल, चमकी बुखार से होने वाली मौतों का सालाना जलसा लग चुका है. बदहाल सरकारी व्यवस्था, सीमित संसाधन के बीच भी दिन रात एक किये डॉक्टरों के भरपूर प्रयासों के बाद भी होती बच्चों की मौतों के साथ वैचारिक जुगाली और चिंतन के प्रजनन के लिए आदर्श मौसम के बीच अस्पताल में हाथ में माइक पकड़े लीची और मौत के समानुपाती सूत्र याद करते चेतना के सीएंडएफ एजेंट का प्रवेश होता है.
"क्या आप इसे केंद्र सरकार की योजनाओं की विफलता कहेंगे?" बच्चों की होती हुई मौतों के बीच लाशों की सीढ़ी बनाकर आईसीयू में घुसे चेतना के सीएन्डएफ एजेंट ने डॉक्टर के मुँह में माइक लगभग घुसा कर पूछा.
"देखिये, हम लोग इस समय अपनी पूरी कोशिश बच्चों को बचाने में लगाए हुए हैं. आप हमें अपना काम करने दें."
"वो तो आप करेंगे ही पर अस्पताल में होती इन मौतों का जिम्मेवार कौन है?"
  चेतना के बाजार का झमाझम प्रचार चल रहा है. हर होती मौत के साथ बढ़ती टीआरपी के बीच बढ़ते चेतना के संवेदी सूचकांक के विस्तार का सामान्य सूत्र यही है कि हर वो जिंस जिसके बाजारीकरण से सूचकांक के नंबरों में इजाफ़ा होता हो उसे बढ़िया रंगरूप और चमक के साथ बाजार के सामने पेश कर दो, चाहे वो बच्चों की मौत ही क्यों न हो. दशकों से चली आ रही सरकारी काहिली पर साल भर भी चेतना का ध्यान गया तो मौत के बाजारीकरण की समस्या खड़ी हो जाएगी.
"आप के पास माध्यम है, संसाधन हैं, आप ही कुछ क्यों नहीं करते?"
"हम वही तो कर रहे हैं." चेतना के सीएंडएफ एजेंट की आंखों में बढ़ती टीआरपी की चमक बोली, "और इसके लिए सबसे पहले भूख और गरीबी जैसे दकियानूसी बहाने छोड़ कर लीची और मौत के समानुपाती सूत्र पर आना पड़ेगा."
  गरीबी और भूख अब गुज़रे जमाने की बातें हो चुकी हैं, इन बातों में अब चुम्बकत्व नहीं रहा. लीची को साथ लेने से गरीबी से होती मौतों पर आकर्षण का तड़का लग जाता है. ये बढ़ता आकर्षण और चुम्बकत्व ही चेतना की उद्योग श्रृंखला को टीवी बहस, लेखों, जर्नल वगैरह की संभावनाओं में सबसे आगे रखता है.
  मुसलमान और लीची चेतना की प्रयोगशाला में संवेदना के नए उत्प्रेरक बन कर बहुत तेजी से उभर कर सामने आए हैं.

  इन सबसे दूर महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के बीड जिले में पिछले तीन-चार सालों में करीब साढ़े चार हजार औरतों की कोख सिर्फ इसलिए निकलवा दी गई कि वो महीने के उन पांच दिनों के प्राकृतिक चक्र में काम का कोई हर्जा न कर पाएं. गन्ने के ठेकेदार इस काम के औरतों को एडवांस देने को तैयार बैठे हैं. पैसा लो, कोख निकलवाओ. पांच सौ रुपए प्रतिदिन की पैनल्टी से बचने के लिए महिलाएं प्रकृति की उस नियामत से ही मुक्ति पा लेती हैं जिसके लिए प्रकृति ने सर्वशक्तिमान पुरुष को छोड़ कर उन्हें चुना था. कभी सोचा है कि शायद कभी आपकी चाय की मिठास में उन गरीब और लाचार महिलाओं की कोख का खून भी शामिल हुआ होगा.
  चेतना का सूचकांक या तो ऊपर होता है या नीचे, वो कभी दाएं-बाएं नहीं देखता.
  पर उन औरतों के साथ समस्या सिर्फ कोख निकलवाना नहीं थी. उनकी सबसे बड़ी समस्या ये थी कि वो चेतना के बाजार के फलने फूलने की सारी संभावनाओं के उलट सिर्फ गरीब और बेचारी औरतें थीं. न उनके साथ मुसलमान होना जुड़ा, न उनमें से कोई मरा और न ही उनके हिस्से लीची जैसी लक्ज़री आ पाई. वो बस किसी भी तरह जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आधी-अधूरी जिंदा औरतें थीं.

  बड़ी विकट समस्या खड़ी हो चुकी है. जिनके पास भूख, गरीबी, मजबूरी है उनके पास चेतना नहीं है और जो चेतना के तेल के कुओं के मालिक हैं उनके पास तो खैर ये सब होने का कोई मतलब ही नहीं है. दुनिया भर में चेतना की सारी सप्लाय का जिम्मा इन्हीं कुओं के मालिकों के जिम्मे हैं. चेतना की डिमांड और सप्लाय के बैलेंस को बनाए रखने के लिए आधुनिक बुद्धू बक्से कमीशन एजेंट का काम बाखूबी संभाले हुए हैं. सी एंड एफ, डिस्ट्रीब्यूटर, होलसेलर, रिटेलर सबका धंधा बखूबी चल पड़ा है.

  अंत में..
  संसद में फिर एक बार चेतना की कीमियागिरी के लिटमस परीक्षण में मुसलमानी उत्प्रेरक डाल कर लिटमस पेपर का रंग हरा किया गया. थोड़ी बहुत बची हुई डेमोक्रेटिक चेतना आजकल अध्यक्ष जी के इस्तीफे देने और न देने के बीच उलझी हुई है. चेतना का संवेदी सूचकांक अपने अगले उछाल के इंतजार में फिर से किसी लीची और गरीबी के बीच के सूत्र के इंतजार में टकटकी लगाए बैठा है.

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