टुंडे के क़बाब
टुंडे के कवाब कवि चिन्तकानंद बड़ी भारी चिंता में डूबे हुए थे. यूँ तो उनका मूल स्वभाव ही चिंतन करना है, पर चिंतन उनके मूल में इस तरह ठूंस ठूंस कर भरा हुआ था कि कहना मुश्किल था कि धरती पर पहले कौन आया, कवि चिन्तकानंद या उनका चिंतन.. इस बार कवि के चिंतन का मूल आधार टुंडे कवाब थे. बचपन से लेकर जवानी तक जिस टुंडे कवाब का नाम तक उन्होंने कभी नहीं सुना, उसके बंद होने की खबर सुनकर उनका कवि हृदय व्यथित हो उठा. अख़बारों में उसके बंद होने की खबर पढ़ पढ़ कर उनका चिंतन स्तर बढ़ने लगा और व्यवस्था से विद्रोह की बातें उनके कवि मन में हिलोरे लेने लगीं. "इस तरह टुंडे कवाब बंद हुए तो हमारी संस्कृति ही नष्ट हो जायेगी." कवि चिन्तकानंद ने अखबार को इस कदर मसलते हुए ये शब्द कहे कि जैसे इस तरह अख़बार मसलने से अभी के अभी सरकार अवैध बूचड़खानों पर लगी रोक वापस ले लेगी. "पर ये टुंडे कवाब कब से हमारी संस्कृति का हिस्सा हो गए? टुंडे कवाब तो अभी एक सौ साल पुराने हैं. उससे पुराना तो मुग़ल काल का इतिहास है." कवि के चेहरे के ऊपर रखे माथे पर चिंतन की चार अतरिक्त रेखाएं ...