अमरबेल
जो आज अपना है
वो सिर्फ ख्वाहिश थी
बचपन के किसी सपने की..
सपने,
जो उम्मीदों के पलंग पर
यूँ ही ऊंघते हुए
जाने कब कब दहलीज पार कर जाते हैं
पीछे छोड़ जाते हैं
सलवटों से रिश्ते
उन सलवटों के साथ
डूबती बहती सी कश्तियाँ
उन कश्तियों में डूबने के डर से सिमटीं
जानी अनजानी मुहब्बतें..
मुहब्बतें,
अरमानों के पेड़ पर
लिपटी अमरबेल हो जैसे
सूख जाते हैं
जिंदा होने के अहसास
सूखे अहसासों के साथ
रह जाती है सिर्फ अमरबेल
अमरबेल भी तब कहाँ
अमर रह पाती है..
👌👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद अक्षिणी जी 🙏🏻
Deleteवाह।👌
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना अमरबेल तो हरी होते हुए भी चिपटी रहती है जिस्म से ,जान से और भावनाओं से भी
ReplyDeleteधन्यवाद बंधुवर 💐💐
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