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फुटबॉल, जुनून, राष्ट्रवाद और डेथ मैच!

फुटबॉल, जुनून, राष्ट्रवाद और डैथ मैच..     मैच की आखिरी गेंद, चेतन शर्मा अपने पूरे रन अप के साथ दौड़ते हुए, जीत के लिए पाकिस्तान को चाहिए चार रन, इस आखिरी गेंद को खेलने के लिए क्रीज पर हैं जावेद मियाँदाद... शर्मा, राइट आर्म ओवर द मीडियम फ़ास्ट, शर्मा ने हाथ घुमाया और ये क्या, ये तो फुलटॉस गेंद... मियाँदाद ने पूरी ताकत से बल्ला घुमाया, गेंद मिडविकेट के पार.. और ये छक्का....    एक बेहद ही रोमांचक और इतिहास में दर्ज होने लायक मैच जिसमें आखिरी गेंद तक नाखून चबाता सारा देश उस बॉल के बाद एक साथ आह कर उठा. 2011 का वर्ल्ड कप याद है जब धोनी ने छक्का मार कर वर्ल्ड कप जितवाया था, उस छक्के के बाद भी देशवासियों के मन में कम से कम छः महीने तक हिलोरें उठतीं रहीं थीं.    अब आप ये सोच रहे होंगे कि मैं कहाँ फुटबॉल का हैडिंग टांक कर आपको क्रिकेट बाँच कर कंफ्यूजिया रहा हूँ तो ऊपर लिखा सारा कुछ दरअसल फुटबॉल के बारे में ही समझाने का प्रयास है. आप अगर क्रिकेट मैच के साथ दर्शाए रोमांच, उत्तेजना, विषाद, राष्ट्रवाद वगैरह सारी भावनाओं को क्रिकेट खेलने वाले दस~ग्यारह देशों...

माँ

माँ    ट्रिन ट्रिन...    मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी. आज तीसरा दिन था जब मैं घर से ऑफिस जाने को निकला पर गया नहीं. न जाने क्यूँ ऐसे ही बेवजह भटक रहा हूँ. बेवजह, जो शायद सिर्फ एक शब्द भर है. क्या वाकई में कुछ भी बेवजह होता है? शायद नहीं, क्योंकि अगर ऐसा कुछ होता तो मैं शहर से दूर इस बियावान जंगल में अक्सर यूँ ही नहीं आता. फिर मेरे यहाँ आने का सबब क्या है? शायद रिश्तों से भटकाव की वजह ही है जो मुझे एक बियावान से दूसरे बियावान में खींच लाती है. हम अपने चारों ओर एक जंगल ही तो बसाए हुए हैं. रिश्तों का जंगल, जहां का हर रिश्ता पेड़, झुरमुट या झाड़ी है. इंसानों का कहीं दूर~दूर तक नामोनिशान नहीं. अपना खुद का वजूद इन सबके बीच कहीं खो सा जाता है, खुद की तलाश इन सबसे बाहर आकर ही हो सकती है पर क्या इस सबसे बाहर आना इतना ही आसान है? शायद इस मुश्किल की वजह से ही मैं यहां चला आता हूँ क्योंकि शहरी जंगल की तरह ये कम से कम मेरे सामने कोई सवाल तो खड़े नहीं करता. यहां सबके पास खड़े होने की अपनी जमीन है और सबके पास अपनी कहानी कहने के लिए एक तयशुदा दायरा है. शायद मैं भी अपनी कहानी सुना...