सिद्धांतों के अर्थशास्त्र घासीराम कुछ अजीब सी ही फितरत का इंसान है. बचपन में उसने स्कूल जाने के नाम पर कंचे के गोले इकट्ठे किए, मिड डे मील में मास्साब के साथ सहभागिता में नए सोपान स्थापित किए. बड़ा हुआ तो चने बेचे, भेल~पूरी की ढकेल लगाई, मनोहर~कहानियां और सरस~सलिल की किताबें आध्यात्म के कलेवर में लपेट कर बेचीं. जब लोगों की आध्यात्म की समझ बढ़ने लगी तो घासीराम आध्यात्म की किताबों को सेक्स के तड़के में लगा कर बेचने लगा. छोटी~मोटी चोरी और पॉकेटमारी का पार्ट टाइम काम भी वो करता था. किसी एक जगह वो टिक कर नहीं रहता. कह सकते हैं कि 'रमता जोगी बहता पानी' कहावत का सार उसके जीवन वृत से छलकता रहता है. इसलिए जब इस बार घासीराम को इडली~सांभर की ढकेल लगाते देखा तो कोई ताज्जुब नहीं हुआ. हम भी हिन्दुस्तानियों की पुरानी आदत कि 'पेट चाहे घर पर ही भरेंगे पर स्वाद हर जगह का लेंगे' से मजबूर होकर घासीराम की तरफ निकल लिए. एक इडली डकारते हुए दुबारा सांभर लेने के लिए कटोरी के साथ 'ये इडली~सांभर की ढकेल क्यों' का सवाल घासीराम की तरफ बढ़ा दिया. सवाल सुनते ही घासीराम के चेहरे पर ने...