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अमरबेल

जो आज अपना है वो सिर्फ ख्वाहिश थी बचपन के किसी सपने की.. सपने, जो उम्मीदों के पलंग पर यूँ ही ऊंघते हुए जाने कब कब दहलीज पार कर जाते हैं पीछे छोड़ जाते हैं सलवटों से रिश्ते उन सलवटों के साथ डूबती बहती सी कश्तियाँ उन कश्तियों में डूबने के डर से सिमटीं जानी अनजानी मुहब्बतें.. मुहब्बतें, अरमानों के पेड़ पर लिपटी अमरबेल हो जैसे सूख जाते हैं जिंदा होने के अहसास सूखे अहसासों के साथ रह जाती है सिर्फ अमरबेल अमरबेल भी तब कहाँ अमर रह पाती है..

प्रसिद्धि के कबूतर

  "rt ले लो.... like ले लो..."   "ओ rt वाले भैया! आज क्या भाव दे रहे हो ये rt और like?" कविवर वारदाना खरीदने के मनोभाव से बोले.   "ले लो भइया, आपको तो सब पता ही है. आपसे का छिपा है."   "चलो ठीक-ठीक लगा लेना. ऐसा करो ५ किलो rt और १५ किलो like तोल दो." कविवर अपनी नई रचना और हिंदी के विकास के समानुपातिक सूत्रों का हिसाब लगाते हुए बोले.   प्रसिद्धि की संभावना की मंडी सज चुकी है. मीडिया की दुकानों से हिंदी के विकास के भूत आभासी आकाश में संभावनाओं के गुब्बारे पर बैठ कर ऊपर की ओर उड़े जा रहे हैं. प्रसिद्धि की संभावना की इस मंडी में बाजार के सीधे मूलभूत सिद्धांत 'जो दिखता है सो बिकता है' का भरपूर दोहन करते हर किस्म का माल दुकान पर सजा रखा है. इंस्टा, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर आदि इत्यादि दुकानें भी ग्राहकों के इंतजार में सजी हुई हैं.   "ये जो आपने लिखा है, ये क्या है?"   "ये मेरी नई रचना है."   "पर ये कैसी रचना है कि न इसमें कोई भाव, न ही सही शब्द विन्यास और इसका कोई अर्थ भी तो नहीं निकलता!"   कवि की रचना के प्रासंगिक...